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________________ - आध्यात्मिक आलोक "अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च गृह्यते" सदगुणों के प्रति आदर और दुर्गुणों के प्रति क्षोभ साधना के द्वारा सहज प्राप्त होता है। जैसे कपड़ों में लगे कीचड़ या गन्दगी से हमें घृणा होती है और उसे हम निकाल डालते हैं, वैसे ही साधक अभ्यास द्वारा पाप पंक को निकाल देता है। विलासमयी महानगरी कलकत्ते के जौहरी श्री सागरमलजी ने साधना के बल से ही भोग और योग की ओर प्रगति की। गुरु भक्ति के उस मस्त साधक ने ५९ दिन का कठोर अनशन हंसते-२ पार कर दिया। एक दिन के व्रत में अकुलाने वाला शान्त-भाव से ५९ दिन पार कर दे, यह साधना का ही बल है । साधना मार्ग के विघ्न और बाधाओं को हटाकर त्यागमय जीवन बिताना ही इष्ट फलदायक है । त्याग और वैराग्य के उदित होने पर सद्गुण आप से आप आते हैं। जैसे ऊषा के पीछे रवि-रश्मियां स्वतः ही जगत को उजाला देती हैं। वैसे अभ्यास के बल पर सद्गुण अनायास चमक पड़ते हैं । साधु सम्पूर्ण त्यागमय जीवन का संकल्प लेकर जन मानस के सामने साधना का महान् आदर्श उपस्थित करता है । वह रोटी के लिये ही सन्त नहीं बनता । रोटी तो पशु-पक्षी भी पा लेता है । संत की साधना का लक्ष्य पेट नहीं 'थेट' है वह मानता है कि रोटी शरीर पोषण का साधन है और शरीर उपासना एवं सेवा का मूल आधार। जैसा कि कहा है “शरीरमाद्यखलुधर्मसाधनम्" किन्तु शरीर यदि साधना मार्ग पर नहीं चले तो किस काम का ? महामुनि ने सोचा कि तप से शरीर भले क्षीण होता है पर आत्मिक शक्ति बढ़ती है । अतः यह भावदया है । उन्होंने हंसते-हंसते प्राणोत्सर्ग कर दिये। । आज दिवंगत सागर मुनि का भौतिक शरीर यद्यपि अस्तित्व में नहीं है, फिर भी उनकी अमर साधना युग-युग तक साधकों के दिल-दिमाग को झुकाती रहेगी। कहा भी है प्रभुताई को सब मरे, प्रभु को मरे न कोय । जो कोई प्रभु को मरे, तो प्रभुता दासी होय ।। वास्तव में प्रभु के पीछे मरने से लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रभुता मिलती हैं जिनको पाकर कि और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता! आज का मानव दिवंगत साधक के पुनीत जीवन से कुछ साधना का महत्व समझ पाये और जीवन को पुण्यपथ पर गतिशील बना सके तो निश्चय ही उसका उभय लोक मंगलमय बन जायेगा। (सैलाना, २०-१२६२)
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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