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________________ मनुष्य अपने चारों ओर की वस्तुओं का उपयोग अपने लिये करने का अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यों का उपयोग भी अपनी आकांक्षाओं और पाशाओं की पूर्ति के लिए हां करता है। वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिये जीएं। उसकी निगाह में दूसरे मनुष्य वस्तुओं ग अधिक कुछ नहीं हाते हैं। किन्तु, उसकी यह प्रवृत्ति बहुत संमय तक चल नहीं पाती हैं। इसका कारण स्पष्ट है। दूसरे मनुष्य भी इसी प्रकार को प्रवृत्ति में रत होते हैं। इसके फलस्वरूप उन शक्ति वृद्धि की मह. त्वाकांक्षा का उदय होता है। जो मनुष्य शक्ति-वृद्धि में सफल होता है, वह दूसरे मनुष्यों का वस्तुत्रों की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है । पर मनुष्य की यह स्थिति घोर तनाव की स्थिति होतो है। अधिकांश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तनाव की स्थिनि में से गुजर चुके होते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए असहनीय होता है। इस असहनोय तनाव के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यों का वस्तुओं की तरह उपयोग करने में असफल हो जाता है। ये क्षण उसके पुनर्विचार के क्षण होते हैं। वह गहराई से मनुष्य-प्रकृति के विषय में सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमें सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्मान-भाव का उदय होता है। वह अब मनुष्य-मनुष्य को समानता और उसकी स्वतन्त्रता का पोषक बनने लगता है। वह अव उनका अपने लिए उपयोग करने के बजाय अपना उपयोग उनके लिये करना चाहता है। वह उनका शोपण करने के स्थान पर उनके विकास के लिये चिन्तन प्रारम्भ करता है। वह स्व-उदय के बजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है। वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्व देने लगता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसे तनाव-पुक कर देतो है और वह एक प्रकार से विशिष्ट xiv ] उत्तराध्ययन
SR No.010708
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1998
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size3 MB
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