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________________ ( २८ ) चन्द्रसूरि' के पृष्ठ १६३ मे श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी की शिष्यपरम्परा का परिचय देते हुए इनकी दो रचनाओं का उल्लेख किया था । कवि ने दूसरी रचना गुणावली चौ० मे इससे पूर्ववर्ती ६ रचनाओं का उल्लेख किया है, इसका भी उल्लेख किया -गया था पर उस समय तक हमे केवल दो ही रचनाएँ मिली थी। इसके बाद खोज निरंतर जारी थी और उसके फलस्वरूप दो रचनाओं की और प्रतियाँ मिली एव दो स्तवन भी देखने मे आए। आपकी गुरु-परम्परा युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी के गुरु श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी से प्रारभ होती है। इस परम्परा मे कई और भी अच्छे अच्छे विद्वान हो गए है जिनमे गुणरत्न न्व महिमोदय आदि उल्लेखनीय हैं। आपने अपने ग्रंथों मे अपनी गुरु-परम्परा का परिचय इस प्रकार दिया है :श्री जिनमाणिकसूरि प्रथम शिष्य, श्री विनयसमुद्र मुनीशजी। श्री हर्षविशाल विशाल जगत मे, सुवदीता जसु सीसजी ॥व० महोवमाय श्री ज्ञानसमुद्र गुरु, वाणी सरस विलासजी। तासु शिष्य उवझाय शिरोमणि, श्री ज्ञानराज गुणराशिजी ॥१० 'विद्यावंत अने वड भागी, सोभागी सिरदारजी। तासु शिष्य लब्धोदय पाठक, सम्बन्ध रच्यो सुखकार जी ।।व० [रनचूड मणिचूड़ चौ० प्रशस्ति ] यही परम्परा कवि ने पद्मिनी चरित्र चौ० की प्रशस्ति में दी है जो इसी ग्रंथ के पृ० १०६ मे देखना चाहिए।
SR No.010707
Book TitlePadmini Charitra Chaupai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1953
Total Pages297
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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