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________________ साधक अन्तर्यात्रा पर चलता है । स्वाध्याय के वल पर वह अपने में कुछ गुण विकसित करने में सफल हो जाता है । किन्तु आध्यात्मिक ऊँचाइयों को जीने के लिए गुरु की श्रावश्यकता है । साधारणतया कोई भी विना श्राध्यात्मिक गुरु के पार नहीं पहुँच सकता है । जो कोई भी गुरु के विनां आध्यात्मिक रहस्यों में उतरने का प्रयास करता है, वह कई प्रकार के खतरों को जन्म दे देता है | गुरु के होने पर गुरु की आज्ञानुसार चलना ही अन्तर्यात्रा को सुगम बनाता है ( ७२ ) । गुरु की अवजा कई समस्याओं को उत्पन्न कर देती है और साधक परम-शान्ति के मार्ग से च्युत हो जाता है (५२, ५४) । अतः आध्यात्मिक सुख का इच्छुक साधक गुरु प्रसाद के लिए प्रयास करे तथा उनकी सेवा में संलग्न रहे (५५, ६० ) । सदैव यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि गुरु का किसी प्रकार का अपमान न हो जाए । गुरु का अपमान अहितकारक ही होता है ( ५१, ५३ ) | दशवैकालिक इस बात पर खेद व्यक्त करता है कि कई साधक ग्रहकार के कारण, कपट और प्रमाद के कारण गुरु के समीप होते हुए भी आध्यात्मिक आचरण में नहीं लगते हैं (४६) । यहाँ यह सम ना चाहिए कि व्यक्ति जिनके पास अध्यात्म की बातों को सीखता है, उनके सामने विनम्र रहना और उनका सदैव सम्मान करना उच्च कोटि का आचरण है (५६) । साधना में विकास विनय से होता है । इसीलिए इसे धर्म का मूल कहा गया है ( ६२ ) । विनय अहंकार रहितता है । अहंकार मानवीय सम्बन्धों को गड़बड़ा देता है । अहंकारी में ग्रहणशीलता का प्रभाव होता है । विनयवान सबका प्रिय वन जाता है । वह शीघ्र ही अपने में ज्ञान आदि गुणों को विकसित करने में सफल हो जाता है । संसार मार्ग में तथा अध्यात्म मार्ग में सभी उसको चाहने लगते हैं । विनीत मनुष्य ही यश और वैभव प्राप्त करने के अधिकारी होते दशवेकालिक ] [ xxi
SR No.010704
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages103
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size3 MB
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