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________________ htttatoetstatstakakakakakakakistttattatatta १८८ कविवरवनारसीदासः । plztuk.st.titututt IRekuteketikokokakukkut-kutkukuttekakakakakakakakikikikrtikkitakrt.kkkiterkottitutikti भी कमर कसे रहते हैं, और अपने अभिप्रायको प्रबल बनानेकी इच्छा से आचायोंके वाक्योंको भी अप्रमाण कहने में नहीं चूकते । पात्र3 कॉकी क्रियाओंको वे हेय समझते हैं, और निश्चयकियाओंमें अनुरक रहनेकी डीग मारा करते हैं। ऐसे महाशयोंको इस नायकके उत्तरीय । जीवनसे शिक्षा लेनी चाहिये । इस ऊर्दू और अधःकी मध्यदशाका * पूर्ण वर्णन करनेको जिसमें हमारे कविवर और उनके मित्र लटक भी रहे थे, हमारे पास स्थान नहीं है। इसलिये एक दोहेमें ही उसकी भी इतिश्री करना चाहते हैं। पाठक इन शुद्धामायियोंकी अवस्थाका अनुमान इसीसे कर लेंगे-- नगन होहिं चारों जने, फिरहि कोठरी माहि। कहहिं भये मुनिराज हम, कछू परिग्रह नाहि ॥ इस अवस्थाको देखकरकहहि लोगश्नावक अरु जती । बानारसी 'खोसरामती क्योंकिनिंदा थुति जैसी जिस होय। तैसी तासु कहै सब कोय। * पुरजन विना कहे नहि हैं । जैसी देखें तैसी कहें ॥ सुनी कहें देखी कह, कलपित कहें बनाय। ___ दुराराधि ये जगतजन, इनसों कछु न वसाय ॥ कविवरने अपनी इस समयकी अवस्थापर पीछेसे अत्यन्त खेद । प्रगट किया है। परन्तु फिर संतोपवृत्ति से कहा है कि " पूर्वकर्मके । उदयसंयोगसे असाताका उदय हुआ था, वही इस कुमतिके उत्पादका यथार्थ कारण था । इसीसे बुद्धिमानों और गुरुजनोंकी शिक्षाये भी कुछ असर न कर सकी । कर्मवासना जब तक थी, तब तक उक्त intukutitutikst.ttituttarkestakrtikutkukrt.titkuttitutikatta
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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