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________________ Forstutatotttatattttttattatottest statute that tetatige जैनग्रन्थरलाकरे Entertststotrxxtetaketnt.tituttakutsta titut.kotkatrketituttituteteketst.tituteketituttitutiktitutitutakutekutteketxxkuta सराय। रहे । तब तक सुना कि, आगानूर आगरेकी ओर चला गया है। अतः शीघ्र ही सफर करके जौनपुर आ गये। जौनपुरमें सबलसिंहजी मोठियाका पत्र आया कि, "दोनों सांझी यहां चले आओ, अव पूर्वमें रहनेकी आवश्यकता नहीं है। पाठकोंको स्मरण होगा कि, यह सवलसिंह वही है, जिन्होंने इन दोनोंको साझी करके व्यापारको भेजा था। इस चिट्ठीके साथमें एक शुप्तचिट्ठी नरोत्तमदासजीके नामकी आई थी, जो उनके पिताने भेजी थी । नरोत्तमदासजीने चिट्ठी मनोनिमेष पूर्वक वांची और एक दीर्घनिःश्वास लेकर अपने प्राणाधिकमिय मित्र बनारसीके हाथमें वह चिट्ठी दे दी और पाठ करने को कहा। बनारसी बांचने लगे, उसमें लिखा था खरगसेन वानारसी, दोऊ दुष्ट विशेष । कपटरूप तुझसों मिले, करि धूरतका भेप॥ ४८१ ।। इनके मत जो चलेगा, सो मांगेगा भीख । ____तातें तू हुशियार रह, यही हमारी सीख ॥ ४८३ _ चिट्ठी पढते ही बनारसीके मुखपर कुछ शोककी छाया दिखाई दी। यह देखते ही नरोत्तम हाथ जोड़के गदगद हो बोला मेरे अमिन्नहृदय-मित्र ! संसारमें मुझे तू ही एक सचा वांधव मिला है। मेरे पिताकी बुद्धि अविचारित-रम्य है। वे किसी दुष्टके बहकानेमें लगे हैं, अतः उनकी भूल क्षन्तव्य है। मेरा अचलविश्वास आपमें याव चन्द्र-दिवाकर रहेगा। आप मुझपर कृपा रखें।" मित्रके इस विश-* सदविवेक-पूर्ण और विश्वस्तमापणसे वनारसी विमुग्ध-अवाक हो रहे। चित्तौ आनन्दकी धारा बहने लगी और उसमेंसे मंद २ शब्द निकलने लगे "यदि संसारमें मित्र हो, तो ऐसा ही हो । अहा! स
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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