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________________ artistiativitititisativistatistics जैनग्रन्धरलाकरे था। और बादशाहकी ओरसे " चारहजारीमीर " कहलाता था। अइसने एक बार कविवरकी प्रशंसा सुनकर इन्हें बुलाया और बडे प्रेमसे सिरोपात्र देकर सत्कार किया । नव्याबमें और कवियरमें अत्यन्त गाढ मंत्री हो गई । नचानकी कविवरपर बड़ी या रहने लगी । कुडीचखां कोई प्रदेश फतह करनेके लिये अन्यत्र चला गया और दो महिनेतक लौटके नहीं आया । इसी समय जौनपुरम इनका कोई परम वैरी उत्पन्न हुआ, उसने इन दोनों (वनारसी-नरोत्तम) को अतिशय दुखित किया । और बहुत सी है आर्थिक हानि भी पहुंचाई। तिन अनेकविध दुख दियो, कहाँ कहां ली सोय । 2 जैसी उन इनसों करी, तैसी करै न कोय ॥ ४५३ ॥ चीनीकिलीचखां देश विजय करके जौनपुर आगया, बनारसीदासजीसे पूर्वानुसार स्नेह रहा । अबकी बार उसने कविवरसे कुछ विद्याभ्यास करना प्रारंभ किया। नाममाला, श्रुतबोध, छन्द कोष, आदि अनेक ग्रन्थ पढ़े। किलीचवांके चले जानेपर सिम पुरुषने दुम्स पहुंचाया था, उसके विषयमें यद्यपि कविवरने नव्याबसे कुछ भी नहीं कहा था, और अपना पूर्वोपार्जित कमीका फल समझकर दे उससे कुछ बदला भी नहीं लेना चाहते थे, परन्तु वह भयभीत हो ॐगया, और नवाबसे प्रार्थना करके पांच पंचौमसे क्षमा मांग ॐ झगडेका निबटेरा जब तक न किया, तब तक उसे निराकुलता नहीं हुई । सज्जनोंके शत्रु स्वयं आकुलित रहा करते हैं ! संवत् । १६७२ में चीनीकिलीचवांका शरीरसात हो गया। कविवरको इस गुणग्राहीकी मृत्युसे शोक हुआ । वे अपने मित्रके साथ जौनपुर छोडके पटनेको चले गये, वहां यह सात महीने रहकर Katrintmkuutetatuntukatekst-ketxt.trisk.kotkekatekxskruttituatstat-katrint-antetnt.trika
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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