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________________ ZALKARNE tatatatatatatertretendentistatatatatatatatatatatatata जैनग्रन्थरत्नाकरे Nukrkukkuttitutikatutekutekkuttekt.ketitutix.kkkakikikikuttituttakutttitutiktar किया । सब लोग मन मारके अपने २ घर चले आये । कविवर मी प्रसन्नतासे अपने घर गये । पाठक ! एक बार विचार कीजिये, अमूल्य-रस-रखको इस प्रकार तुच्छ समझके फेंक देना और तत्काल विरक्त हो जाना, क्या रसिकशिरोमणिको सामान्य उदारता * हुई १ नहीं ! यह कार्य वडी उदारहदयता और स्वार्थत्यागका हुआ। उस दिनसे कविवरने एक नवीन अवस्था धारण की तिस दिनसों बानारसी, करी धर्मकी चाह । तजी आसिखी फासिखी; पकरी कुलकी राह ॥ खरगसेनजी पुत्रका उक्त वृत्तान्त सुनकर बहुत हर्षित हुए। 3 उन्हें आशा हो गई कि, मेरे कुलका नाम जैसा आज तक रहा है, वैसा आगे भी रहेगा 1 पुत्रकी पूर्वावस्यासे साम्प्रत अवस्थाका मिलान कर वें चकित हो गये । निश्चय किया कि, कह दोप कोउ न तजै, तजै अवस्था पाय । । जैसे वालककी दशा, तरुण भये मिट जाय ॥२७॥ और उदय होत शुभकर्मके, भई अशुमकी हानि । * तातें तुरत बनारसी, गही धर्मकी बानि ।। २७३ ॥ थोड़े ही समयमें क्या से क्या हो गया। जो बनारसी संसारको एक क्लेशजन्यरसके रसिया थे, वे ही अब जिनेन्द्रकै शान्तरसके वशमें हो गये । अडौस पडौसके लोग तया कुटुम्बीजन जिसको कल गली कूचोंमें मटकते देखते थे, आज उसी बनारमीको जिनमन्दिरको अष्टद्रव्ययुक्त जाते देखते हैं। जिनदर्शन किये बिना १ आशिकी। २ मासिकी अर्थात् पापकर्म । लल्लामाल Nottitutatstitutituzukrantitetititutetntulandekuttituttit u tituttituteketaketitutitutta - - -
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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