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________________ IRANAMEMADA- - - -- - -... 装しまいにちいさなちいさいされていた広さとみは法はさましさはははたくさも出法は大いち・たっち、はたまた出たいていたのは、 जैनग्रन्थरवाकरे ३१ खरगसेन अपनी मातासे नरवरकी विपत्तिका हाल सुन चुके थे। से रायसाइवके शरीरपात होनेपर उन्हें वही बात स्मरण हो आई, । इसलिये जो कुछ जमा पूंजी साथमें थी; उमे लेकर एक होगी। दरिद्रीका वेप बनाकर वहांसे निकल पड़े। कई दिन में मार्ग चलके जौनपुरमें आये । माताके चरणोंकी पूजा की । जो कुछ द्वन्य या उन्हें सौंप दिया और विपत्तिका कारण बतलाया । इस समय बरगम ॐनकी वय केवल १४ वर्षकी थी, माताने आंनू भरके से दिया। चार वर्ष जौनपुरमें रहके संवत् १६२६ में वर्गसन आगरे में व्यापार निमित्त आये । सुन्दरदास पतिया नामक मिली। से व्यापारी के मांझमें व्यापार किया । उक्त सांबीदारसे एसी मित्रता हुई कि, दोनोंकी प्रीति देखकर लोग दोनों को पिता पुत्र मगरते थे। चार वर्षक सांझमें बहुतसा द्रव्य एकत्र किया, और पांच वर्ष * माता और गुरुजनों के प्रयत्नाने मेरठनगरके सूरदासजी श्रीमानको कन्याके साथ खरगसेनका विवाह हो गया । विवाह होने के पश्चात् फिर अगलपुर (आगरा) आकर व्यापार में दत्तचित्त हो गये। इसी समय अर्थात् संवत् १६३१ में मित्रचर्य मुन्दरदासजी अपनी मायांक सहित परलोकयात्रा कर गये, और अपने पीछे मात्र एक पुत्री छोड गये । बरगसेनजी उदारचरित्र पुरुष थे, उन्होंने अपनी ओरसे बड़े साजवाजसे नित्रको पुनीका विवाह कर दिया, और पंचोंके सम्मुख मुन्दरदासजीकी सम्पूर्ण मन्नति पुत्री Ritut.tutntntart.tntertttitut-tnt.trt.t.ttitut-tra-2-t.tit-tokuttituttt. t t मोप दी। संवत् १६३३ में खरगमनने आगरा छोड़ दिया और ये विपुल सम्पत्तिके अधिकारी होकरजौनपुरमें रहने लगे। पीछे जानपुरके प्रसिद्ध के -tAtta PreVATHYRON hin STAY.44 + + + ।
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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