SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वनारसीविलासः १६३ नवमा ठगं आज्ञान अगाघ । जासु उदय उपजै अपराध || जो अपराध पाप है सोय | जहां पाप तहां धर्म न होय १२ दशम काठिया भ्रम विच्छेप । भ्रमसों अशुभ करमको लेप || अशुभ कर्म दुरमतिकी खानि । दुरमति करै धर्मकी हानि १३ एकादशम काठिया नींद | नासु उदय जिय वस्तु न वीं ॥ मन बच काय होय जड़रूप । वूड़े धर्म कर्मघनकूप ॥१४॥ उग द्वादशम अष्टमद् भार | जामें अकररोग अधिकार || अकररोग अरु विनयविरोध | जह अविनय तहँ धर्मनिरोध १५ तेरम चरम काठिया मोह | जो विवेकसों करै विछोह || अविवेकी मानुष तिरजंच । धर्मधारणा घरै न रंच ॥ १६ ॥ येही तेरह करम ठग | लेहिं रतन त्रय छीन ॥ यातें संसारी दशा । कहिये तेरह तीन ॥ १७ ॥ इति त्रयोदश काठिया. अथ अध्यातम गीत लिख्यते. राग गौरी. । मेरा मनका प्यारा जो मिलै । मेरा सहज सनेही जो मिलै ॥टेक॥ अवघि अजोध्या आतम राम । सीता सुमति करै परणांम ॥ मेरा मनका प्यारा जो मिलै, मेरा सहन० ॥ १ ॥ उपज्यो कंत मिलनको चाय । समता सखीसों कहै इसभाव || मेरा मनका प्यारा जो मिलै, मेरा० ॥ २ ॥
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy