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वनारसीविलासः ६१
पृथ्वी। विवेकचनसारिणी प्रशमशर्मसंजीवनी
भवार्णवमहातरी मदनदावमेघावलीम् । चलाक्षमृगवागुरां गुरुकपायशैलाशनि विमुक्तिपथवेसरी भलत भावनां किं परैः॥ ८७ ॥ प्रशमके पोपवेको अग्रतकी धारासमः
ज्ञानवन सींचवेको नदी नीरमरी है। चंचल करण मृग बांधवेको वागुरासी; ___ कामदावानल नासत्रेको मेघ झरी है ।
प्रवल कपायगिरि भंजवेको वन गदा, __भो समुद्र तारवेको पौदी महा तरी है। मोक्षपन्थ गाहवेकों वेशरी विलायतकी, ऐसी शुद्ध भावना अखंड धार ढरी है ॥ ८७ ॥
शिखरिणी। धनं दत्तं विचं जिनवचनमभ्यस्तमखिलं
क्रियाकाण्डं चण्डं रचितमवनी सुप्तमसकृत् । तपस्तीनं तप्तं चरणमपि चीर्ण चिरतरं न चेचित्ते भावस्तुपवपनवत्सर्वमफलम् ॥ ८८॥
___ अमानक छन्द । गह पुनीत आचार, जिनागम जोवना ।
कर तप संजम दान, भूमि का सोबना ।। १. अश्वतरी अर्थात् सबरी.
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