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बनारसीविलासः
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तजे निज धामको विधि परदेश धारः
सबै प्रमु ऋषणमलीन है मनमैं । ढोल बन कारज अनारज मनुज सूद,
ऐसी करतूति करैः लोमकी लानमें ॥ ५७ ॥ मूलं मोहविषद्रुमस्य नुकृताम्माराशिकुम्मायकः ।
क्रोधाग्निररणिः प्रतापतरणिपच्छादन तोयदः । क्रीडासदकलेविवकशशिनः स्वर्भानुरापनदी* सिन्धुः कीर्तिलताकलापकलमो लोमः पराभृयवान ८ कि
पूरन प्रताप रवि, रोकको धारावरः
कुति समुन्द्र लोडवेको कुन्भनं है । कोप देव पावक जननको अरणि द्वार, ___ मोह विष मूल्हको; महा दृढ कंद है। परम विवेक निशिमणि ग्रासको राहुः
कीरति लता कलाप दलन गयंद्र है। कलहको केलिभान आपन्द्रा नदीको सिंचः ऐसो लोभ याहूलो विपाक दुख इंद है || ५८ ॥
वसन्ततिला निशेषधर्मवनदाहविजृम्भमाण
दुःखौधभस्मनि विसपंदकीर्तिधूम। चाई धनन्धनसमागमायनाने
लोमानले शलमवा लमते गुणोयः ॥ ५९॥
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