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________________ सुभाषितमञ्जरी मायावियो के सब अनुष्ठान व्यर्थ हैं कूटद्रव्यमिवासारं तपो धर्मत्रतादिकम् । भायाविनामनुष्ठानं सर्न भवति निष्फलम् ॥१५३॥ अर्थ:- मायावी मनुष्यो के तप, धर्म तथा व्रतादिक कूट द्रव्य-निर्माल्य के समान सार रहित है इसी तरह मायावी मनुष्यो के सब अनुष्ठान निष्फल है ।।१५३।। ___ मायावी का गुप्त पाप स्वय प्रकट होता है मयां करोति यो मढ, इन्द्रियादिकसेवने । गुप्तपापं स्वयं तस्य व्यक्तं भवति कुष्ठवत् ।।१५४।। अर्थ- जो मूर्ख इन्द्रियादिक के सेवन मे माया करता है उसका गुप्त पाप कुष्ठ के समान स्वय प्रकट हो जाता है । __ माया युक्त वचन त्याज्य है मायायुक्तं वचस्त्याज्यं माया संसारवर्धिनी । ! यदि सङ्गपरित्यागः कृतः कि मायया तव ॥१५५॥ अर्था:- मायायुक्त वचन छोडने योग्य है क्योकि माया ससार को बढाने वाली है । हे मुने | यदि तूने परिग्रह का त्याग किया है तो तुझे माया से क्या प्रयोजन है ? ॥१५५।।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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