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________________ सुभाषितमञ्जरो पुरुष का दो प्रहर ठहरता है, नीच का दिन-रात ठहरता है और अत्यन्त पापी मनुष्य का क्रोध सदा ठहरता है ।।१४३।। क्रोध के प्रति क्रोध क्यो नही करते ? अपकुर्वति कोपश्चेत कि कोपाय न कुप्यति । त्रिवर्गस्यापवर्णस्य जीवितस्य च नाशिने ॥१४४॥ अर्थ - यदि अपकार करने वाले पर क्रोध किया जाता है तो त्रिवर्ग को, मोक्ष को और जीवन को नष्ट करने वाले क्रोध पर क्यो नही क्रोध करते हो ।।१४४।। क्रोध के समान दूसग शत्रु नही है वरं विवर्धयति सख्यमपाकरोति रूपं विरूपयति निन्धमति तनोनि । दौर्भाग्यमानयति शातयते च कीर्ति लोकेऽत्र रोपसदृशो न हि शत्रुरस्ति ।।१४५'। अर्थ - वैर को बढाता है, मित्रता को दूर करता है, रूप को विरूप करता है, निन्दितबुद्धि-दुर्बुद्धि को विस्तृत करता है, दौर्भाग्य को लाता है और कीर्ति को नष्ट करता है सच-- मुच ही इस ससार मे क्रोध के समान दूसरा शत्रु नहीं है।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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