SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुभाषितमञ्जरी अमर्थाः- यदि गुरु के लिये नगर और ग्राम से सहित पृथ्वी को देवे तो भी पुरुष कभी ऋण रहित नही हो सकता ।।६।। स्याद्वादवन्दना __ स्याद्वादवन्दना . 'स्याद्वादं सततं वन्दे सर्वप्राणिहितापहम् । समतामृतपूर्ण यद् विश्वभ्रान्तिहरं परम् ।'८७॥ अर्था:- जो समस्त प्राणियो का हित करने वाला है, समता रूपी अमृत से पूर्ण है तथा सब प्रकार की भ्रान्तियो को हरने वाला है उस श्रेष्ठ स्याद्वाद सिद्धान्त की मैं वन्दना करता हूँ। अनेकान्तरवि उपजाति ५. सर्वथैकान्तनयान्धकार निहन्त्यवश्य नयरश्मिजाले । विश्वप्रकाशं विदधाति नित्यं पायादनेकान्तरवि स.युष्मान् ॥ अर्थ:- जो नय रूपी किरणों के समूह से सर्वथा एकान्तनय रूपी अन्धकार को अवश्य ही नष्ट करता है तथा जो निरन्तर समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है वह अनेकान्त रूपी रवि तुम सब की रक्षा करे ॥८॥
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy