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________________ सुभाषितमरी २० कर भी इस लोक तथा परलोक दोनो मे जीवित है ।।४।। जिन धर्म ही मुक्ति का कारण है सिद्धा सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति कालेऽन्तपरिवर्जिते । जिनदृप्टेन धर्मेण नेवान्येन कथञ्चन ॥४४॥ सर्या - आज तक जितने सिद्ध हुए हैं, वर्तमान मे सिद्ध हो हो रहे है, और अनन्त भविष्यकाल मे जितने सिद्ध होगे वे सव जैनधर्म से ही हुए है, हो रहे है, और होगे, अन्य प्रकार से , नही ॥४४॥ धर्म का अनादर करने वाले की मूढता अनादरं यो वितनोति धर्म कल्याणमालाफलकल्पवृक्षे । चिन्तामणिं हस्तगतं दुरारं मन्ये म मुग्धस्तृणपज्जहाति ।४५ आर्या - जो कल्याण परम्परा रूप फल को देने के लिये . कल्पवृक्ष स्वरूप धर्म का अनादर करता है । जान पडता है वह मूर्ख हाथ मे आये हुए दुर्लभ चिन्तामणि रत्न को तृण के समान छोड देना है ।।४।। धर्म शोभा का कारण सस्येन देरा पयसाजाएड शोर्येण शस्त्री विटपी फलेन । धर्मेण शोभामुपयाति मयों मदेन दन्ती तुरगो जवेन।।४६ देश -धान्य से, कमल समूह जल से, शस्त्र का धारक
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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