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________________ सुभाषितमञ्जरी सूर्य का प्रकाश कही चला गया, ? यदि कौए पूर्ण चन्द्रमा को नहीं जानते हैं तो क्या इससे कही इसकी कान्ति चली गई ? यदि कुए में रहने वाला मेढक क्षीर समुद्र की निन्दा करते हैं तो क्या इससे इसकी निन्दा हो जाती है ? इसी तरह अन्य अज्ञानी जीव यदि जिन धर्म को नही जानते हैं तो क्या इससे इसकी कुछ हीनता होती है अर्थात् नही ॥३३॥ धर्म रूपी रसायन का पान प्रति दिन करना चाहिये इदं शरीरं परिणामदुर्बलं पतत्यवश्यं शतसन्धिजर्जरम् । किमौषधं यच्छसि नाम दुमते निरामय धर्मरसायनं पिव अर्थ:- सैकड़ो सन्धियो से जर्जर हुआ यह शरीर अन्त में दुबल होकर अवश्य ही नष्ट हो जाता है। हे दुर्बुद्धि तू इसे क्या औषध देता है ? तू तो रोग को नष्ट करने वाली धर्म रूपी रसायन को पी ॥३४॥ जिनधर्म की दुर्लभता दुर्लभ मानुष जन्म थार्यखण्ड च दुर्लभम् । दुर्लभं चोत्तम गोत्रं जिनधर्मः सुदुर्गमः ॥३शा अर्थ:- मनुष्य जन्म दुर्लभ है, आर्यखण्ड दुर्लभ है, उत्तम , गोत्र दुर्लभ है और जिन धर्म अत्यन्त दुर्लभ है ॥३॥ . जिन धर्म की अमूल्यता
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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