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________________ सुभाषितमञ्जरी '१६५ अथ :- जो सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्न संसार रूपी सर्प का दमन करने के लिये नागदमनी के समान है, दुखःरूपी दावानल को शान्त करने के लिये जलवृष्टि के समान हैं , तथा मोक्ष सुखरूप अमृत के तालाब के समान है, वे सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्न भले प्रकार जयवन्त होते है ।।४१५॥ याचा परिहार सबसे याचना न करो अन्योक्ति रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्र यतामम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः। केचिद् वृष्टिभि रायन्ति धरणी गर्जन्ति केचिद् वृथा यं य पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा व हि दीनं वचः ।४१६॥ अर्था:- हे मित्र चातक | क्षण भर के लिये सावधान चित्त होकर सुनो, यद्यपि श्राकाश मे बहुत से मेघ रहते है तथापि सभी मेघ ऐसे नहीं होते। उनमे कोई तो वृष्टि से पृथ्वी को श्रा करते हैं और कोई व्यर्थ ही गरजते है इसलिये तू जिसे जिसे देखता है उसके आगे दीन वचन मत बोल ।४१६॥ याचना के पूर्व ही गुण रहते है पीछे नहीं तावत्सत्यगुणालयः पटुमतिस्तावत्सतां वल्लभः शूरः सच्चरितः कलङ्करहितो मानी कृतज्ञः कविः ।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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