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________________ १५२ सुभाषितमञ्जरी अर्थ - जो अप्रिय वचनों के विपय मे दरिद्र है, प्रिय वचनों से सम्पन्न है, अपनी स्त्री मे संतुष्ट है, और परनिन्दा से दूर है ऐसे पुरुषों से पृथ्वी कहीं कहीं सुशोभित है ॥३८३॥ साधु कौन है ? पृथ्वीच्छन्दः जयन्ति जितमत्सराः परहितार्थमभ्युद्यताः स्वयं विगतदोपकाः परविपत्तिखेदाबहाः । महापुरुषसंकथाश्रवणजातरोमोग्दमाः समस्तदुरितार्णवे प्रकटसेतवः साधवः ॥३८४॥ अर्थ- जिन्होंने ईर्ष्या को जीत लिया है, जो परहित के लिये तत्पर रहते है, जो स्वयं दोष रहित है, जो दूसरों की विपत्ति मे खेद धारण करते है, जो महापुरुषों की कथा सुन कर रोमाञ्चित होते है और जो समस्त पुरुषों के पापरूपी समुद्र मे प्रकट पुल है वे साधु है ॥३८४॥ ___धीर कौन है ? ते धीरास्ते शुचित्वाट्या स्ते वैराग्यसमुन्नताः । विक्रियन्ते न चेतांसि सति येषामुपद्रवे ॥३८५।।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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