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________________ सुभापितमञ्जरी जिस प्रकार ईख के आगे आने की पोर में क्रम से रस की विशेषता होती जाती है उसी प्रकार सज्जन की मित्रता आगे आगे विशिष्ट-अधिक अधिक होती जाती है परन्तु दुर्जनो की मित्रता इससे विपरीत होती है ।।३७१।। पुरुषोत्तम कौन है ? गजानो यं प्रशंसन्ति यं प्रशंसन्ति वै द्विजाः ।। साधयो यं प्रशंसन्ति य पार्थ पुरुषोत्तमः।३७२।। अर्थः- राजा जिसकी प्रशंसा करते है, ब्राह्मण जिसकी प्रशंशा करते है और साधु जिसको प्रशंसा करते है हे अजुन । वह पुरुषोत्तम है ।।३७२॥ मनुष्यों के चार भेद तेतु सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थ परित्यज्य ये सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये। . तेऽमी मानुपराक्षसाः परहितं स्वर्थाय निघ्नन्ति ये ये निम्नन्ति निरर्थकं परहित ते के न जानीमहे ।३७३। अर्थ:- जो स्वार्थ को छोड कर परार्थ करने में तत्पर रहते है वे सत्पुरुष है, जो स्वार्थ का विरोध न कर परार्थ करने में तत्पर रहते है, वे सामान्य पुरुष हैं, जो स्वार्थ के लिये
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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