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________________ १२६ सुभाषितमञ्जरो वा दुःखमाध्या चपला दुरन्ता यस्या वियोगो बहुदुःखहेतुः । तस्या कृतेजन्तुरुपैति लचस्याः परिश्रमं पश्यत मोहमस्य ।। अर्था जो लक्ष्मी बढे कष्ट से उपार्जन की जाती है, चञ्चल है, तथा जिसका वियोग अत्यधिक दुःख का कारण है, ऐसी लक्ष्मी के लिए यह जीव इतना परिश्रम करता है । अहो देखो इसके मोह को ॥३२४॥ स्वच्छानामनुकूलानां संडतानां नृचेनसां । विपर्यासकरी लक्ष्मी धिक पङ्कर्द्धिमिवाम्भसाम् ।।३२५॥ अर्था - जिस प्रकार कीचड स्वच्छ अनुकूल एवं मिले हुए जल को मलिन कर देता है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी स्वच्छ अनुकूल और मिले हुए मनुष्यों के चित्त को विपरीत कर देती है । अतः इसे धिक्कार हो ।।३२५॥ मधुरस्निग्धशीलानां चिरस्थरनेहहारिणीम् । चलाचलान्मिकां धिक् धिक् यन्त्रमूर्तिमिवश्रियम् । ३२६॥ अर्थ - जिस प्रकार यन्त्र मूर्ति ( कोल्हू ) मधुर एवं चिकण स्वभाव वाले तिलहनों के दीर्घकालिक तैल को हर लेती है, तथा अत्यन्त अस्थिर होती है। उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मधुर एवं स्नेहपूर्ण स्वभाव वाले मनुष्यों के चिरकालिक स्नेह
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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