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________________ सुभाषितमञ्जरी १२१ पुण्यशाली जीव तप करते है पुण्यवन्तो महोत्साहाः प्रबोधं परमं गताः । विषवद् षियान् दृष्टया ये तपस्यन्ति सज्जनाः ॥३०१॥ अर्थ - परम प्रबोध को प्राप्त हुए जो सज्जन विपयों को विष के समान देख कर बहुत भारी उत्साह से सहित होते हुए तप करते है वे पुण्यशाली है ॥३०१॥ तप ही मुक्ति का कारण है ये बुधा मुक्तिमापन्ना यान्ति याम्यन्ति निश्चितम् केवलं तपसा ते वै हेतुरन्यो न विद्यते ॥३०२।। अर्थ - जो विद्वान् मुक्ति को प्राप्त हुए है, हो रहे हैं और होंगे वे निश्चित ही एक तप के द्वारा हुए है, हो रहे है और होंगे, मुक्ति का दूसरा कारण नहीं है । ॥३०२।। दीक्षा की प्रार्थना संसारकूपसंपातिहस्तालम्बनधारिणीम् । देहि दीक्षां विभो मह्य कर्मविच्छेदकारिणीम् ।।३०३॥ अर्था - कोई भव्य आचार्य से प्रार्थना करता है कि हे नाथ ! संसाररूपी कुए मे पडने वालों लिये हाथ का सहारा देने वाली तथा कर्मों का विच्छेद करने वाली दीक्षा मुझे दीजिये,
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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