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________________ सुभाषितमञ्जरी १०६ अर्था:- जिस प्रकार वस्त्र आदि मलिन पदार्थ पानी से धोने पर शुद्ध हो जाते है उसी प्रकार तपरूपी पानी से तापस शुद्ध हो जाते ।।२७०॥ गृहस्थाश्रम हितकारी नहीं है सर्व धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं क्वाध्येतद्यवत्करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि । तस्मादेष तदन्धरज्जवलनं स्नानं गजस्याथवा मत्तोन्मत्तविचेष्टितं नहि हितो गेहाश्रमः सर्वथा । २५१५ अर्थ - मूल् की वात जाने दो बुद्धिरूपी धन के धारक भी गृहस्थों का चरित्र कभी तो सव काम धर्म मय करता है, कभी प्रायः पापमय करता है और कभी धर्म तथा पाप दोनों से युक्त करता है इसलिये उनका यह कार्य अन्धे की रस्सी वटने के समान अथवा हाथी के स्नान के समान है। गृहस्थ की चेष्टा मदिरा आदि के नशा मे मत्त अथवा पागल मनुष्य की चेष्टा के समान है यथार्थ में गृहस्थाश्रम सर्वथा हितकारी नहीं है ॥२७१॥ सब पदार्थ क्षणिक हैं शिखरिणी छन्दः यदस्माभिदृष्टं क्षणिकमभवत्स्वप्नमिव तत् कियन्तो भावा स्युः स्मरणविषयादयगताः ।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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