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________________ सुभाषितमञ्जगे अर्थ:- जिस प्रकार सूर्य से अन्धकार और अग्नि से शीत दूर भागता है उसी प्रकार औषधदान करने वाले मनुष्य के शरीर से रोगीपना दूर भागता है ।।२२२।। औषधदान देने वाले के सगेगअवस्था नहीं होती न जायते मरोगत्वं जन्तो रौषधदायिनः । प्रावकं सेवमानस्य तुषारं हि पलायते ।।२२३॥ आर्या- औषधदान देने वाले के सरोगपना नही होता सो ठीक ही है क्योकि अग्नि की सेवा करने वाले के शीत भाग्य हो जाता है ॥२२३॥ औषनदान का महत्व पातपित्तकफोत्थान रोगैरेष न पीड्यते । दावैरिव जलस्थायी भेषजं येन दीयते ॥२२४॥ सर्थ:- जिस प्रकार जल में स्थित रहने वाला जीव दावामल से पीडित नहीं होता उसी प्रकार जिसने औषध प्रदाता की है वह वात्तपित और कफ से उत्पन्न होने वाले रोगों से पीडित नही होता ।।२२४". . . प्रौषधदान का फल वचनो से अकथनीय है । येनौषधप्रदस्येह वचनैः कथ्यते फलम् ।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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