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________________ सुभाषितमञ्जरी ज्ञाता तथा विद्वानों मे शिरोमरिण होता है ॥२१६।। औषधदान प्रशंसा औषधदान कर्मरूपी रोग को नष्ट करने वाला है औषधं यो मुनीनां संदत्ते पुण्याकरं बुध । देवलोके सुखं भुक्त्वा कर्मरोगादिकं क्षिपेत् ।।२१७।। अर्था:- जो विद्वान् पुरुष मुनियो के लिये पुण्य की खान स्वरूप औषध प्रदान करता है वह स्वर्ग लोक मे सुख, भोग कर कर्मरूपी रोगादिक का क्षय करता है और मोक्ष प्राप्त करता है। औषधदान की उपयोगिता न शक्नोति तपः कतुं सरोगः संयतो यतः । ततो रोगापहारार्थं देयं प्रासुकमौषधम ॥२१८॥', अर्था - क्योकि रोगी मुनि तप करने में समर्थ नहीं है इस लिये रोग दूर करने के लिये उन्हे प्रामुक औषध देना चाहिये। 1 रोगियो को औषध देना चाहिये. . . . रोगिभ्यो भेषजं देय रोगा देहविनाशकाः । देहनाशे कुतो ज्ञानं ज्ञानाभावे न निकृतिः ॥२९६'
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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