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________________ सुभाषितमजरो ७३ अर्था - जो दया रहित परिग्रह पुरुषो के हृदय में बहुत भारी दाह देकर नष्ट होने वाले हैं वे तुम्हारी प्रीति के लिये कैसे हो सकते हैं ? ||१७७॥ धन अनर्थ का कारण है अर्थः कस्यानयों न भवति भरतः समस्तधनलाभरतः। चक्री चक्रे ऽनुज वधाय मनः प्रहतवैरिचक चक्र।।१७८॥ अर्थ . धन किसके लिये अनर्थ का क रण नही है ? जब कि भारत चक्रवर्ती ने शत्रुओ के समूह को नष्ट करने वाले चक्र रत्न प्राप्त होने पर छोटे भाई के बध के लिये मन किया था। उस धन के लिये नमस्कार हो (२) अविश्वासनिदानाय महापातकहेतवे। पितृपुत्रविरोधाय हिरण्याय नमोस्तु ते ॥१७६ ।। अर्था - जो अविश्वास का कारण है, महापाप का हेतु है तथा पिता और पुत्र मे विरोध उत्पन्न करने वाला है उस स्वर्ण (धन) के लिये नमस्कार हो ।।१७६।। परिग्रह सदा बन्ध का कारण है कादा चदको बन्धः क्रोधादेः कर्मणः सदा सङ्गात् । नातः क्वापि कदाचित्परिग्रहवतां जायते सिद्धिः ॥१८०।।
SR No.010698
Book TitleSubhashit Manjari Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri, Pannalal Jain
PublisherShantilal Jain
Publication Year
Total Pages201
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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