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________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। सुमहो त्रिभुवन के नाथ जोड़ में हाथ नवाऊं माथ तुम्हारे चरण ॥ टेक । तुम हो देवन के देव देव करें सेव सदा स्वयमेव तुम्हारी नाथ, सौ इन्दू नवमें भाल दीन दायाल तुमको त्रैकाल मैं नाऊं माथ, छवि तुम्हरी दर्शन योग्य बहुत मनोग्य तजे भव भोग तुमने इकसाथ, श्री वतिराग निर्दोष गुणों के कोष मैं जोडों हाय ॥ छड। सुन भाई श्री वीतरात की मूर्ति पूजो सदा । सुन भाई इति भीति भय विघ्न होय ना कदा ॥ सपट। कर देव अतिशय नाना विधि हर्षधार तन में । तिन्हें देख आश्चर्य वान होते पाणी मन में ॥ भेला। एसी अतिशय अधिकारी, होवें जिन ग्रेह मझारी, तिनको देखें नरनारी उर हर्ष होय अति भारी, अव तिनका कुछ विस्तार सुनो नरनार, हर्ष उरधार जो चाहो तरण | तुमहो त्रिभुवन के नाथ जोड़ मैं हाथ नवाऊं माथ तुम्हारे, चरण ॥ १॥ श्री हर्दा का जिनधाम पवित्र सुगम तहां किसी भाम ने अ विनय करी, दर्शन को आई अपवित्र देख चारित्र सुरों विचित्र विक्रिया धरी, ' श्री शान्ति मूर्ति जिनदेव तिससे पसेव कढा स्वयमेव उसीही घरी, श्री जिन म तिमा से महा भूमि जल वहा जाय ना कहा लगी ज्यों झरी ।। छड़। सुन भाई यह देख असम्भव अतिशय सव थरहरे, सुन भाई नरनारी सव आश्चर्यवान हुए खरे, सर्पट। अन्यमती भी यह चरित्र सुन दर्शन को आये, धन्य २ मुख से कह नर त्रिय जिनवर गुणगाये ।
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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