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________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। शिव त्रिय के जाऊं. ना फेर यहां ग्राऊं, नाथूराम भक्ति हिये श्रानी जी भये धन्य वेही माणी ॥ ४ ॥ शाखी। चितवत जिन नाम फल उपवास होतहजार जी। फल गमन करतेदरश कोहों लाखमोषध सारजी। होकोड़ा कोड़ि अनन्त फलपोषध दरशतेवारजी, करदर्शनाथूराम ऐसे नाय का इरवारजी ॥ दौड़। करो दर्शन जैनी निशि दिन, गृहमत भोजन दर्शन दिन । सार दर्शन बतलाया जिन, खवर इसकी मत भूलो तिन । समझ मनजो शिवकी इच्छा, नाथूराम पनपर यह शिक्षा । जिन दर्शन की लावनी ॥ ५८॥ आज प्रभु का दर्शन पायाजी । आनन्द उरमें छाया || टेक | मिटा मि. थ्यापय अंधियारा, भूम नाश भया सारा, हुआ उर सम्यक उजियारा, शिव मार्ग पद धारा, कार्य सीझगा मन भाषा जी । वानन्द उसमें छाया ॥१॥ कम्पतरु परे गृह फूला, देखत सब दुःख भूला, भया चिंतामणि अनुकूला, प्रोको सब सुख मूला, हर्ष कुछ जाय नहीं गायाजी । आनंद उरमें छाया ।। स्वपर पहिचान भई सारी, पर परणति वमि डारी, मुगुरुवच श्रदाउर धारी। दुःख नाशक हितकारी लस्वत मुख मस्तक पद नायाजी, श्रानंद सर में आया दया अप दया नाय कीजे, निज चरण शरण दीजे । नाथूराम निश्चय पर लायाजी , आनंद उरमें छाया ४॥ जिन भजन का उपदेश ५९।। भजन जिनवर का कर विविधि प्रकार करें भवोदधि पार | टेक ॥ अन्य -
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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