SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर । ७५ लतांय जी, कोई कलह बनावे कोई सोचें झोर सांय, कोई हो उदास घर उठ जांगनी ।। दोहा। अन्यमती सदृश क्रिया करते यहां अनेक । तर्पणादि कहां तक कहाँ ढय न रंच विवेक ।। पन्य भेपिन का मन भाया, जिन्हें खल कुशुरुन बिहकाया जी ॥११॥ धन बल श्रायु अरोग्य भोग इनके मिलने की बास, तथा चाहे वैरी का नाशगी, इन फलमादि लुभाने अतिही नाहक सहते त्रास, करें वेला तेला उ पवास नी।। दोहा। देव धर्म गुरु परखिये नाथूराम जिन भक्त । तज विकल्प निज रूप में हूजे अव श्राशक्त । समय पंचम जगमें छाया, जिन्हें खल कुगुरुन बिहकाया जी ॥ १९ ॥ कुटिल ढोंगी भावक की लावनी॥ ५४॥ पन क्रिया मुगुक्त सरावक को तुमसा गुण मूल । कि जिनके वचन बज के मूलनी || टेक ॥ क्षायक सम्यक भयो तुम्हारे उभय पक्ष क्षयकार वंश भेदन कुठार पर धारजी, पर निंदा में करत न शंका निश्शांकित गुण धार, प्रशंसा करत निज हरवारजी, धन्य प्रशंसा योग्य सरावक वर्पत मुखसे फूल । कि जिनके वचन बजने शूलजी ॥ १॥ मुकत कांक्षा तजी सर्व एक वतति पर अपकार, श्रेष्ठ यह निकांछित गुणधारजी, निर्विचिकित्सा गुणभारी पर मुयश न सकत सहार. देखपर विभत्र होत हिय क्षारजी, पंडितों में शिर मौर कल्पतरु कलिके श्रेष्ठ बंबूल, कि जिनके वचन वजूके शूलगी ।।२।। परगुण ढकन लखन पर अपगुण यह गुण दृष्टि अमूढ, कहत यही उपूगृहण मुख गुण गृहजी, एसी शिक्षा देत जाय जिय भवसागर में बूढ यही गुण स्थिती करण अनि रूढ़नी, भात पुत्र का चिन फाइत यह वात्सल्य गुण मूल | कि जिनके
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy