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________________ ५८ ज्ञानानन्दरत्नाकर । फिर पाताल लेक में जाय । छिपे सर्वही प्राण बचाय ॥ दोहा। असनवेग तव सेनले लौट गया निज थान | फिर उदास हो भोगसे धारा तप बुधिवान ।। सहसार पुत्रको राज तिन दिया किया निज वास विपन । जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहों वचन ॥१॥ सहस्रार ने लंका में निर्घात सुभट राखा थाने । सहसार के भया सुत इन्दू नाम राखा ता ने ॥ सूर्यरज ऋक्षरज भये किहकन्द के दो सुत गुण स्याने । नगर. वसाके वसे किहकन्दपुर, के तव दरम्याने ॥ चौपाई। सूर्यरज के दो मुत भये । नाम वालि सुग्रीव मुठये ॥ ऋक्षरज के भी दो सुतभये । नल अरु नील नाम तिन दये ॥ दोहा। निवसे वानर द्वीप में यासे कपि कुल नाम । ये वन पशु वानर नहीं विद्याधर गुण धाम ॥ विद्याके वल चढ़ विमान में करें सर्वगं गॅगण गमन । जिन शासन का लहाँ आधार न कल्पित कहों वचन ॥ ७ ॥ लंका पति राक्षस सुकेश के तीन पुत्र उपजे गुणवान । माली सुमाली और लघु माल्यवान रूप के निधान ।। माली ने निर्यात सुभट को मार लिया लंका निजथान। . फिर माली को इन्दू विद्याधर ने मारा रण म्यान ॥ - चौपाई। सुमाली के सुत रत्नश्रवा के । भये तीन सुत अति वलवाकै ।। रावण आदि तिन्हों ने जाके | गांधा इन्दू समर में धाके।
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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