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________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। कर से नवे जिसे जब गृहतन संयम ठाना है। उसी रूपपर मैं हूं आशक्त वही जर माना है। जिस जाना की अनुकम्पा से निज मुरूप पहिचाना है। उसी की खातर बंद मय मथकर अहो निशिछाना है ॥ २॥ उसनाना के जाने बिन जी भवन में भटकाना है। आधार न पाया कहीं चिरकाल सहादुःख नाना है। लख चौरासी योनि चतुर्गति में बहुबार रुलाना है। स्थान न कोई बचा जहा गरा न जमा प्राना है । निमने उम जाना को जाना वही वप्ता शिवथाना है। उमी की खातर वेद पथ मथकर महोनिशि छाना है ॥ ३ ॥ उसजाना के मित्र भो तिन यस विधि भरिको हाना है। काल वली का सर्व भभिमान तणक में भाना है। निराधाघ अव्यय पह पाके यही बना शिव गना है । जांगृ कुटम्म को छोड़ जाना का घरानिग ध्याना है ।। नायूगम जिन भक्त सार उसी जान का गुण गाना है । उसी की खातर वेद मय मथकर अनिशिछाना है ।। ४ ॥ कुमतिकी लावनी २० ॥ कुपनि कुनारिक चेतन से क्या डारत तुप पिचकारी | मैं पाप रगीली मेरे रंग में दी दुनियां सारी | टेक ।। मोह राज हैं पिता हमारे जिन निज वशकीना संसार लिख चौगली योनि में नाच नचायन वारम्बार || भव समुद्र बहु भाति रंगका तीन लोक में विस्तार । हुरिता जगजीव रहे वह दूध कठिन है पाना पार ।। धर्म कल्पतरु कटवा मैंने बहु अघ होरी विस्तारी । मैं आप रंगीली मेरे रंग में इवी दुनियांमारी ||१| क्रोधमान छललोम बड़े भ्राता मेरे अति वलयेचार । मित्र जिन्हों का मदन योद्धा रति का पति काम कुमार ।। पंचेंद्री तिसकी दासी मम शखी मेरे रहती नित लार । नाना विवि के करें कौतुक मेरे संग में व्यभचार ।। इच्छा दुख की मूल नायका सो है हमारी महतारी । मै आप रंगीली मेरे रंग में डूवी दुनियां सारी ॥ २॥ भै कलटाजग में प्रसिद्ध पर अशुभ भाव मेरे भतार । गिल्या दर्शन और कपाय सर्व तिनका परिवार ।। आर्त रोद्र मम जेठरुदेवर प्र. शुभ लेश्या तिनकी नारि योगप्रव्रत तथा मिथ्यात्व बन्श पतिका यह सार । ज्ञान दर्शनावरणी मदिरा छाय रही हग में भारी । मै आप रंगोली मेरे रंग में दूची दुनियां सारी ॥ ३ ॥ नाम कर्म बह भांति चितेरा काया कौनक गृह कीना
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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