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________________ ज्ञानानन्द रत्नाकर। ८७ (टेक) नाभि नृपति कुल गगण दिवाकर भवि सरोज विगसन नामी शिव सुखदाता त्रिजगति त्राता ना हरि हर क्रोधी कामीर तुम पद पद्मगंध अलि सेवत अनागार अरु भवि धामी ३ है नाथूराम की विनय यही ना होय भ्रमण भव आगामी॥४॥ तथा ॥२॥ श्रीपतिकरुणाकर वीर धीर भव भ्रमणहरो प्रभुनीमराटिक) भववन गहन भ्रमत चिर वीता करत तहीं फिररफेरा॥१॥ जग हितकारी वानि सुधारी प्रगट विरद जगमें तेरा ॥२॥ सुर नर मुनि खग तुमयश गावत पावस शिव अविचलडेरा३ नाथूराम को हे जगदश्विर को पद्म पद का चेरा ॥४॥ तथा ॥३॥ वामानंदन प्रभु पारसकें पद जजत होत अव क्षारक्षार(टेक) उग्रवंश मणि अश्वसेन नृप तारक भवोदधि पार पार॥१॥ जन्म पुरी शुभ नगर बनारस वसत गंग तट सारसार ॥२॥ सुर नरादि पद वंदत जिनके कहत वचन मुख तार तार॥३ नाथूराम जिन भक्त नवत नित चरण कमल को बार बार ४ , दादरा ॥१॥ कीजे आप समान, मेरे प्रभुहो कीजै आप समान ।। (टेक) और देव सव स्वारथी हैं, चाहत अपना मान॥१॥ तुम निज गुण दातार होजी, दीजे निन गुण दान ॥२॥ देत न तुम गुण पटत हैं जी, तुम अक्षय गुणवान ॥३॥
SR No.010696
Book TitleGyanand Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1895
Total Pages105
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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