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________________ _ ज्ञानानन्द रत्नाकर लाख तिरेसठ पूर्व राज कर तब प्रभु भये उदास । तुरत लोकांतिकसुर आपास जी। स्तुति कर गृह गये शेषसुर इंद्र प्रभूके दास । रची शिवका प्रभुको सुखराशिजी ॥ . - दोहा। तामें प्रभु आरूढ़ हो, गये तपो बन नाथ । वस्त्राभरण उतार के, लुचि केश निज हाथ ॥ तहातप लागे दुर्द्धरकरन ॥ आदि प्रभु प्रगटे तारण०॥७॥ कर तप घोर जिनेश हने खल चारि घातिया कर्म ॥ ज्ञानतहां उपजा पंचम पर्मजीसमोशरण हरि रचा प्रकाशा जहां प्रभुने निज धर्म । मिटाया भवि जीवों का भर्म जी। दोहा। देश सहस्र बत्तीस में , कीना नाथ विहार ॥ अष्टापद से शिव गये, हनि अवातियाचार ॥ नाथूराम जहां न जन्मन मरन॥आदिप्रभु प्रगटे तारण०८ मूर्ख जैनीकी लावनी ॥ २३ ॥ जिन मत पाय विपर्यय वर्तं क्या जिनमत पाया॥ जिन्हें खल कुगुरुन बिहकाया जी॥ - (टेक). नर पर्याय पाय श्रावक कुल आर्य क्षेत्र प्रधान ॥ मिला दुर्लभ जिन पशुभ आनजी।चलेंचालि विपरीति ॥ कुगुरु शिक्षा पर कर श्रद्धाण । सुनो वर्णन तिसका घर ध्यानजी॥
SR No.010696
Book TitleGyanand Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1895
Total Pages105
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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