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________________ ज्ञानानन्द रत्नाकर। साधे तप तज भोग जान भव रोग साधु सो तारण तर्ण ॥ अष्टा विंशत मूल गुणके धारी मुनि राखो शर्ण ॥ - शेर-सार ये पंच परमेष्टी भक्ति इनकी सदा पाऊं ॥. नहो क्षण एक भी अंतर जब तलक मुक्तिनाजाऊं। मिले सत्संग धीमन का सवोंके चित्त में भाऊं। जपों बसु याम पद पांचो भाव धर हर्ष से गाऊं ॥ नाथूराम शिवधाम वसनको णमोकार अहो निशि उचरें। सुर नरके सुख भोगि-बसु अरि हरिके भव सिंधु तरें॥६॥ अरिहंतके ४६ गुण और १८ दोष रहितकी लावनी॥ ७ ॥ छालिस गुण युत दोष अठारह रहित देव अरिहंत नमों ॥ त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवंत नमः॥ .. (टेक) रहित पसेव देह मल वर्जित श्वेत रुधिर अति सुंदर तन॥ प्रथम संहनन प्रथम संस्थान सुगंधित तन भगवन ।। प्रियहित वचन अतुल बल सोहे एकसहस्त्र वसु शुभ लक्षण।। ये दश अतिशय कहे जन्मत प्रभुके सुनिये भविजन ॥ मति श्रुत अवधि ज्ञान युतजन्मत सुरनरादिघ्यावंत नमो।। त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवंत नमों ॥१॥ दो सौ योजन काल पड़े ना करें प्रभूजी गगण गमन ॥ चौ मुख दरशें सर्व विद्या होवें ना प्राण वधन ॥ वर ऐश्वर्य न कच नख बढ़ते नहीं लागे टमकार नयन ॥
SR No.010696
Book TitleGyanand Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1895
Total Pages105
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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