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________________ ७४ बुधजन-सतसई कविप्रशस्ति । मधि नायक सिरपैंच ज्यौं, जैपुर मधि ढूंढार | नृप जयसिंह सुरिंद तहां, पिरजाको हितकार ॥ ९६॥ की. वुधजन सातसै, सुगम सुभापित हेर । सुनत पढ़त समझै सरव, हरै कुबुधिका फेर ॥ ९७ ॥ संवैत ठारासै असी, एक वरसते घाट । जेठ कृष्ण रवि अष्टमी, हवौ सतसइ पाठ ॥ ९८ ॥ पुन्य हरत रिपुकष्टकौं, पुन्य हरत रुज व्याधि । पुन्य करत संसार सुख, पुन्य निरंतर साधि ॥ ९९ ॥ भूख सही दारिद सहौ, सही लोक अपेकार । निंदकाम तुम मति करो, यहै ग्रंथको सार ७०० ग्राम नगर गढ़ देशमै, राजप्रजाके गेह । पुन्य धरम होवो करै, मंगल रहौ अछेह ॥ ७०१॥ ना काहूकी प्रेरना, ना काहूकी आस । अपनी मति तिखी करन, वरन्यौ वरनविलास ॥ ७०२ ॥ EFORE समाप्तोऽयं ग्रन्थः। ATE24. १ जेठ वदी ८ सवत् १८७९ । २ अपमान-तिरस्कार।
SR No.010694
Book TitleBudhjan Satsai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages91
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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