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देवानुरागशतक। ___ यादि हियामें नाम मुख, करौ निरन्तर बास ।
जौलौं वसा जगतमै, भरवौं तनमैं सॉस ॥१६॥ — मैं अजान तुम गुन अनत, नाही आवे अंत । : चंदत अंग नमाय वसु, जावजीव-परजंत ॥९७।।
हारि गये हो नाय तुम, अधम अनेक उधारि।। धीरे धीरे सहजमें, लीजै मोहि उबारि ॥९८॥ आप पिछान विमुद्ध है, आपा कयौ प्रकास । आप आपमैं थिर भये, बंदत बुधजन दास ॥१९॥ मन मूरति मंगल बसी, मुख मंगल तुम नाम । एही मंगल दीजिये, परयो रहूं तुम धाम ॥१०॥
इति देवानुरागशतक ।