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________________ कवि-परिचय। द्विज सत्री कोली बनक, गनिका चाखत लाले। ताको सेवन मृह जन, मानत जन्म निहाल ।। जैसे अपने प्रान है, तसे परके जान । कैसे हग्ने दुष्टजन, विना वर पर प्रान ।। चारत इरत भोगत डरे, गरें कुगति दुःख घोर । लाम लिख्यो सोना टर, मृरस क्या है चोर ।। अपनी पग्तम देखिक, जैया अपने दर्द। तसे ही पानारिका, दुःखी होत है मर्द ॥ म्वयं कविजीने अपने ग्रन्थका सार निम्नस्थ पद्यम दर्गाया है। भूरा गही दारिद्र सही, सहो लोक अपकार । निंद काम तुम मति कर्ग, यह ग्रन्थको सार । अन्य समाप्ति के समय-सम्बन्धमें आपने निम्न लिखित दोहा लिया है। संवन ठागमै असी, एक बरमते घाट । जंट कृष्ण रवि अष्टमी, हुबै सतसई पाठ ।। इनके पढ भागचन्द्र, दौलत, भूपर, द्यानत, महाचन्द्र, जिनेश्वर आदि कवियोंके पदोंसे किसी भी बातमें कम १लार।
SR No.010694
Book TitleBudhjan Satsai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages91
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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