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________________ (२४) और वनस्पति, दोइन्द्रिय-शंख, जलोक, कृमि, लारीए। ते इन्द्रिय-मांकड, कानखजूरे, ज, उघड, कुन्थु मकोडा। चौरिन्द्रिय विच्छ, भ्रमर, मांखी, दीडि, डांस, पञ्चेन्द्रिय-देव, मनुष्य तीर्यचादि सामने आते हुओंको मारे, जमीनके साथ मसले, एक दूसरेको इकट्ठे किये, छूकर दुःख दिया, परिताप दिया, थका कर मुर्दा किये, उपद्रव किया, एक स्थानसे दूसरे स्थान पर रखे, आयुप्यसे चुकाए हों। (इन संबंधी) जो कोई पाप लगा हो वह मेरा निष्फल होवे । ॥ तस्स उत्तरी॥ तस्स उत्तरी करणेणं, पायच्छिल करणणं, विसोही करणेणं, बिमल्ली करणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्टाए, ठामि काउस्सग्गं ॥ ? ॥ अर्थ-उस पापको शुद्ध करनेके लिए, उसका प्रायश्चित (आलोयणा) करनेके लिए, आत्माको शुद्ध करने के लिए, आत्माको शश्य (माया नियाण और मिथ्यात्वस) रहित करनेके लिए, पारकर्माका नाश करनेके लिए, मैं कायन्यापारका त्याग करने रूप कायोत्सर्ग करता हूं। ॥ अथ अन्नथ्थ उससिएणं ॥ अन्नथ्थ अससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए, पित्त तुच्छाए॥ १ ॥ सुहमेहिं अंग संबालेहि . पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के आप अनन्यतम शिष्य है एवं उनक द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ एवं सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं।
SR No.010693
Book TitleChaityavandan Samayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1918
Total Pages35
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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