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________________ - - नरतिरिए सुवि जीवा, पावंति न दुख दोगचं ॥३॥ तुह सम्मत्ते लडे, चिन्तामणि कप्पपाय वन्भहिए। पावति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं॥४ाइअसं. शुओ महायस, भत्तिप्भर निप्भरण हिआएण |ता देवदिज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ॥६॥ (नोट) ईसके बदले यहां दूसरे स्तवन इच्छा हो वैसे बोल सकते हैं.। अर्थ-उपसर्गका हरनेवाला पार्श्व नामका यक्ष सेवक है जिनवा, ऐसे श्रीपाश्र्धनाथ स्वामीको मैं वन्दन करता हूँ। जो कर्म समुहसे गक्त हैं, सर्पके विपको अतिशयसे नाश करनेवाले हैं, मंगल कल्याणके घर हैं, विषहर स्फुलिंग मंत्रको जो कोई , मनुष्य सदैव कंठमें धारण करता है, उनके दुष्ट ग्रह, रोग, मरकी, दृष्ट ज्वर नाश होते हैं। यह मंत्र तो दूर रहा (किन्तु) आपको किया हुआ नमस्कार भी बहुत फल देता है। मनुष्य, तिर्यचमें भी जीव दुःख, दरेद्रता नहीं पाते । जो आपका सम्यक्त्वदर्शन पाते हैं, वह (दर्शन) चिन्तामणिरत्न (और) कल्पवृक्ष से भी अधिक है। भव्य जीव अजर अमर स्थानक (मुक्ति) को निर्विघ्नतासें पाते हैं। हे महायश ! इस प्रकार यह स्तवना करी । भक्ति समूहसे परिपूर्ण, अन्तःकरणसे हे देव ! बोधि बीज जन्मः जन्ममें हें पार्थनिनचन्द्र ! मुझे दो। विधि-बांदमें और भी कोई स्तवन पढ़ना हो वह पढ़कर, भंगलियोंको बराबर मिलाकर (जैसे: मोती: भरी हुई सीप सम्पुट:
SR No.010693
Book TitleChaityavandan Samayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1918
Total Pages35
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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