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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसार। फिरसे आवलिके असंख्यातमे भागका भाग देना चाहिये, और लब्ध बहुभागको बहुतसंख्यावालेको देना चाहिये । इस प्रकार अन्तपर्यन्त करना चाहिये । भावार्थ-कल्पना की जिये कि त्रसराशिका प्रमाण दोसौ छप्पन है । और प्रतिभागहाररूप आवलीके असंख्यातमे भागका प्रमाण ४ चार है । इसलिये दोसौ छप्पनमें चारका भाग देनेसे लब्ध ६४ आते हैं। इस ६४ के एक भागको अलग रखदेने पर बहुभागका प्रमाण एकसौ बानवे वाकी रहता है । इस बहुभागके अड़तालीस २ के समान चार भाग करके द्वीन्द्रियादि चारोंको विभक्त करना चाहिये । और शेष चौसठमें फिर चारका भाग देना चाहिये । इससे लब्ध सोलहके एक भागको अलग रखकर वाकी अड़तालीसके बहुभागको बहुतसंख्यावाले द्वीन्द्रियको देना चाहिये । और शेष सोलहके एकभागमें फिर चारका भाग देनेसे लब्ध बारहके बहुभागको क्रमप्राप्त त्रीन्द्रियको देना चाहिये । और शेष चारके एक भागमें फिर चारका भाग देनेसे लब्ध तीनके बहुभागको चतुरिन्द्रियको देना चाहिये । और शेष एक पंचेन्द्रियको देना चाहिये । इस प्रकार त्रसोंकी २५६ राशिमेंसे द्वीन्द्रियोंका प्रमाण ९६, त्रीन्द्रियोंका प्रमाण ६०, चतुरिन्द्रियोंका प्रमाण ५१, और पंचेन्द्रियोंका प्रमाण ४९ हुआ। जिसप्रकार अंकसंदृष्टिमें यह प्रमाण बताया है उसही प्रकार अर्थसंदृष्टि में भी समझना; परन्तु अङ्कसंदृष्टिको ही अर्थसंदृष्टि नहीं समझना चाहिये। त्रसोंमें पर्याप्तक और अपर्याप्तकोंका प्रमाण बताते हैं । तिविपचपुण्णपमाणं पदरंगुलसंखभागहिदपदरं । हीणकमं पुण्णूणा बितिचपजीवा अपजत्ता ॥ १७९ ॥ त्रिद्विपञ्चचतुःपूर्णप्रमाणं प्रतराङ्गुलसंख्यभागहितप्रतरम् । हीनक्रम पूर्णोना द्वित्रिचतुःपंचजीवा अपर्याप्ताः ॥ १७९ ॥ अर्थ-प्रतराङ्गुलके संख्यातमे भागका जगत्प्रतरमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना ही त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय पंचेन्द्रिय चतुरिन्द्रियमें प्रत्येक पर्याप्तकका प्रमाण है । परन्तु यह प्रमाण “बहुभागे समभागो" इस गाथामें कहे हुए क्रमके अनुसार उत्तरोत्तर हीन २ है । अपनी २ समस्तराशिमेंसे पर्याप्तकों का प्रमाण घटानेपर अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण निकलता है । इति इन्द्रियमार्गणाधिकारः समाप्तः ॥ कायमार्गणाका वर्णन क्रमसे प्राप्त है । अतः उसकी आदिमें कायका लक्षण और उसके भेदोंको बताते हैं। जाईअविणाभावीतसथावरउदयजो हवे काओ। सो जिणमदलि भणिओ पुढवीकायादिछब्भेयो ॥ १८॥ गो. १० For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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