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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोम्मटसार । ६९ अर्थ-संज्ञी जीवके स्पर्शन रसन घ्राण इन तीनमें प्रत्येकका विषय क्षेत्र नव २ योजन है । और श्रोत्रेन्द्रियका बारह योजन, तथा चक्षुका सेंतालीस हजार दोसौ त्रेसठसे कुछ अधिक उत्कृष्ट विषयक्षेत्र है । चक्षुके उत्कृष्ट विषयक्षेत्रकी उपपत्तिको बताते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तिष्णिसय सठ्ठिविरहिदलक्खं दसमूलताडिदे मूलम् । वगुणिदे सहिदे चक्खुप्फासस्स अद्धाणं ॥ १६९ ॥ त्रिशतषष्ठिविरहितलक्षं दशमूलताडिते मूलम् । नवगुणिते षष्ठिते चक्षुः स्पर्शस्य अध्वा ॥ १६९ ॥ अर्थ - तीन सौ साठ कम एक लाख योजन जम्बूद्वीप के विस्कम्भका वर्ग करना और उसका दशगुणा करके वर्गमूल निकालना, इससे जो राशि उत्पन्न हो उसमें नवका गुणा और साठका भाग देने से चक्षुरिन्द्रियका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र निकलता है । भावार्थ —— सूर्यका चारक्षेत्र पांचसौ बारह योजन चौड़ा है । उसमें तीन सौ वत्तीस योजन तो लवणसमुद्र में हैं और शेष एकसौ अस्सी योजन जम्बूद्वीपमें हैं । इस लिये जम्बूद्वीप के दोनों भाग के तीन सौ साठ योजन क्षेत्रको छोड़कर वाकी निन्यानवे हजार छह सौ चालीस योजन प्रमाण जम्बूद्वीपके विष्कम्भकी परिधि करणसूत्र के अनुसार तीन लाख पन्द्रह हजार नवासी योजन होती है । इस अभ्यन्तर परिधिको एक सूर्य अपने भ्रमणके द्वारा साठ मुहूर्त में समाप्त करता है । और निषधगिरिके एक भागसे दूसरे भाग तककी अभ्यन्तर वीथीको अठारह मुहूर्त में अपने भ्रमण द्वारा समाप्त करता है । इसके विलकुल वीचमें अयोध्या नगरी पड़ती है । इस अयोध्या नगरीके वीचमें वने हुए अपने महलके ऊपरले भागपरसे भरतादि चक्रवर्ती निषिधगिरिके ऊपर अभ्यन्तर वीथीमें उदय होते हुए सूर्यके भीतरकी जिन प्रतिबिम्बका दर्शन करते हैं । और निषधगिरिके उस उदयस्थानसे अयोध्या पर्यन्त उक्तरीतिके अनुसार सूर्यको भ्रमण करनेमें नव मुहूर्त लगते हैं । इसलिये साठ मुहूर्त में इतने क्षेत्रपर भ्रमण करै तो नव मुहूर्त में कितने क्षेत्रपर भ्रमण करै ? इसप्रकार त्रैराशिक करनेसे अर्थात् फलराशि ( परिधिका प्रेमाण) और इच्छाराशिका ( नव ) गुणा कर उसमें प्रमाणराशि साठका भागदेने से चक्षुरिन्द्रियका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र सेतालीस हजार दोसौ त्रेसठसे कुछ अधिक निकलता है । अर्थात् ज्यादे से ज्यादे इतनी दूर तकका पदार्थ चक्षुकेद्वारा जाना जा सकता है । १ “विक्कम्भवग्ग दहगुणकरिणी वहस्स परिरहो होदि" अर्थात् विष्कम्भका जितना प्रमाण है उसका वर्गकर दशगुणा करना पीछे उसका वर्गमूल निकालना ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना ही वृत्तक्षेत्र की परिधिका प्रमाण होता है। २ तीन लाख पन्द्रह हजार नवासी योजन | ३ सातयोजनके वीस भोगों से एक भाग । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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