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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पृथ्वीदकानिमारुतसाधारणस्थूलसूक्ष्मप्रत्येकाः । एतेषु अपूर्णेषु च एकैकस्मिन् द्वादश खं षट्कम् ॥ १२४ ॥ अर्थ-स्थूल और सूक्ष्म दोनोंही प्रकारके जो पृथ्वी जल अमि वायु और साधारण, और प्रत्येक वनस्पति, इसप्रकार सम्पूर्ण ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तकोंमेंसे प्रत्येक (हरएक ) के ६०१२ भेद होते हैं । भावार्थ-स्थूल पृथिवी सूक्ष्म पृथिवी स्थूल जल सूक्ष्म जल स्थूल वायु सूक्ष्म वायु स्थूल अमि सूक्ष्म अग्नि स्थूल साधारण सूक्ष्म साधारण तथा प्रत्येक वनस्पति इन ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तकोंमेंसे प्रत्येकके ६०१२ भव होते हैं। इसलिये ११ को ६०१२ से गुणा करनेपर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके उत्कृष्ट भवोंका प्रमाण (६६१३२) निकलता है । ___ समुद्धात अवस्थामें केवलियोंके भी अपर्याप्तता कही है सो किस प्रकार हो सकती है यह बताते हैं। पजत्तसरीरस्स य पज्जतुदयस्स कायजोगस्स। जोगिस्स अपुण्णत्तं अपुण्णजोगोत्ति णिहिट ॥ १२५ ॥ पर्याप्तशरीरस्य च पर्याप्त्युदयस्य काययोगस्य । योगिनोऽपूर्णत्वमपूर्णयोग इति निर्दिष्टम् ॥ १२५ ॥ - अर्थ-जिस सयोग केवलीका शरीर पूर्ण है, और उसके पर्याप्ति नाम कर्मका उदय भी मौजूद है, तथा काययोग भी है, उसके अपर्याप्तता किसप्रकार हो सकती है? तो इसका कारण योगका पूर्ण न होना ही बताया है। भावार्थ-जिसके अपर्याप्त नामकर्मका उदय हो, अथवा जिसका शरीर पूर्ण न हुआ हो उसको अपर्याप्त कहते हैं । क्योंकि पहले "जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्तिअपुण्णगो ताव" ऐसा कह आये हैं । अर्थात् जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तब तककी अवस्थाको निर्वृत्त्यपर्याप्ति कहते हैं । परन्तु केवलीका शरीर भी पर्याप्त है, और उनके पर्याप्ति नामकर्मका उदय भी है, तथा काययोग भी मौजूद है, तब उसको अपर्याप्त क्यों कहा ? इसका कारण यह है कि यद्यपि उनके काययोग आदि सभी मौजूद हैं, तथापि उनके कपाट, प्रतर, लोकपूर्ण तीनोंही समुद्धात अवस्थामें योग पूर्ण नहीं है, इस ही लिये उनको आगममें गौमतासे अपर्याप्त कहा है । मुख्यतासे अपर्याप्त अवस्था नहांपर पाई जाती है ऐसे प्रथम द्वितीय चतुर्थ और छट्टा ये चार ही गुणस्थान हैं। किस २ गुणस्थानमें पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था पाई जाती हैं ? यह बताते हैं । लद्धिअपुण्णं मिच्छे तत्थवि विदिये चउत्थछट्टे य । णिवत्तिअपजत्ती तत्थवि सेसेसु पजत्ती ॥ १२६ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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