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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir . गोम्मटसारः। उपपादगर्भजेषु च लब्ध्यपर्याप्तका न नियमेन । नरसम्मूर्छिमजीवा लब्ध्यपर्याप्तकाश्चैव ॥ ९२ ॥ अर्थ-उपपाद और गर्भ जन्मवालोंमें नियमसे लब्ध्यपर्याप्तक नहीं होते । और सम्मूर्छन मनुष्य नियमसे लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं । भावार्थ-देव नारकी पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त ही होते हैं । और चक्रवर्तीकी रानी आदिको छोड़कर शेष आर्यखण्डकी स्त्रियोंकी योनि कांख स्तन मूत्र मल आदिमें उत्पन्न होनेवाले सम्मूर्द्धन मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं। नरकादि गतियोमें होनेवाले वेदोंका नियम करते हैं । णेरइया खलु संढा णरतिरिये तिण्णि होंति सम्मुच्छा संढा सुरभोगभुमा पुरिसिच्छीवेदगा चेव ॥९३॥ नैरयिकाः खलु षण्ढा नरतिरश्चोत्रयो भवन्ति सम्मूर्छा: षण्ढाः सुरभोगभूमाः पुरुषस्त्रीवेदकाश्चैव ॥ ९३ ॥ अर्थ-नारकियोंका द्रव्यवेद तथा भाववेद नपुंसक ही होता है । मनुष्य और तिर्यच्चोंके तीनोंही ( स्त्री पुरुष नपुंसक ) वेद होते हैं । देव और भोगभूमियाओंके पुरुषवेद और स्त्रीवेद ही होता है । भावार्थ-देव नारकी भोगभूमिआ और सम्मूर्छन जीव इनका जो द्रव्यवेद होता है वही भाववेद होता है; किन्तु शेष मनुष्य और तिर्यञ्चोंमें यह नियम नहीं है । उनके द्रव्यवेद और भाववेदमें विपरीतता भी पाई जाती है । आङ्गोपाङ्ग नामकमके उदयसे होनेवाले शरीरगत चिह्नविशेषको द्रव्यवेद, और मोहनीयकर्मकी वेदप्रकृतिके उदयसे होनेवाले परिणामविशेषोंको भाववेद कहते हैं। शरीरावगाहनाकी अपेक्षा जीवसमासोंका निरूपण करनेसे प्रथम सबसे उत्कृष्ट और जघन्य शरीरकी अवगाहनाओंके स्वामियोंको दिखाते हैं। सुहमणिगोदअपजत्तयस्स जादस्स तदियसमयम्हि । अंगुलअसंखभागं जहण्णमुक्कस्सयं मच्छे ॥ ९४॥ सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य तृतीयसमये । अङ्गलासंख्यभागं जघन्यमुत्कृष्टकं मत्स्ये ॥ ९४ ॥ अर्थ उत्पन्न होनेसे तीसरे समयमें सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी अङ्गालके असं. ख्यातमे भागप्रमाण शरीरकी जघन्य अवगाहना होती है । और उत्कृष्ट अवगाहना मत्स्यके होती है । भावार्थ-ऋजुगतिकेद्वारा उत्पन्न होनेवाले सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी उत्पत्तिसे तीसरे समयमें शरीरकी जघन्य अवगाहना होती है, और इसका प्रमाण घनाङ्गुलके १ उत्पत्तिके प्रथम समयमें आयतचतुरस्र और दूसरे समयमें समचतुरस्र होता है, इस लिये प्रथम द्वितीय समयमें जधन्य अवगाहना नहीं होती; किन्तु तीसरे समयमें गोल होजानेसे जघन्य अवगाहना होती है। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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