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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। ( जो जेरके साथ उत्पन्न हों ), अण्डज ( जो अण्डेसे उत्पन्न हों ) इन तीन प्रकारके जीवोंका गर्भ जन्म ही होता है । देव नारकियोंका उपपाद जन्म ही होता हैं। शेष जीवोंका सम्मूर्छने जन्म ही होता है। किस जन्मके साथ कौनसी योनि सम्भव है यह तीन गाथाओंद्वारा बताते हैं । उबबादे अचित्तं गम्भे मिस्सं तु होदि सम्मुच्छे । सञ्चित्तं अञ्चित्तं मिस्सं च य होदि जोणी हु॥८५॥ उपपादे अचित्ता गर्भे मिश्रा तु भवति सम्मूर्छ । __सचित्ता अचित्ता मिश्रा च च भवति योनिर्हि ॥ ८५ ॥ अर्थ-उपपाद जन्मकी अचित्त ही योनि होती है। गर्भजन्मकी मिश्र योनि ही होती है । तथा सम्मूर्छन जन्मकी सचित्त अचित्त मिश्र तीनों तरहकी योनी होती है। उबबादे सीदुसणं सेसे सीदुसणमिस्सयं होदि । उबबादेयक्खेसु य संउड वियलेसु विउलं तु ॥८६॥ उपपादे शीतोष्णे शेषे शीतोष्णमिश्रका भवन्ति । उपपादैकाक्षेषु च संवृता विकलेषु विवृता तु ॥ ८६ ॥ अर्थ-उपपाद जन्ममें शीत और उष्ण दो प्रकारकी योनि होती हैं । शेष जन्मोंमें शीत उष्ण मिश्र तीनों ही योनि होती हैं। उपपाद जन्मवालोंकी तथा एकेन्द्रिय जीवोंकी योनि संवृत ही होती है । और विकलेन्द्रियोंकी विवृत ही होती है। गब्भजजीवाणं पुण मिस्सं णियमेण होदि जोणी हु। संम्मुच्छणपंचक्खे वियलं वा विउलजोणी हु॥ ८७ ॥ गर्भजजीवानां पुनः मिश्रा नियमेन भवति योनिर्हि । सम्मूर्छनपंचाक्षयोः विकलं वा विवृतयोनिार्ह ॥ ८७ ॥ अर्थ-गर्भजजीवोंकी योनि नियमसे मिश्र ( संवृत विवृतकी अपेक्षा ) होती है। पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन जीवोंकी विकलेन्द्रियोंकी तरह विवृत योनि ही होती है । उक्त गुणयोनिकी उपसंहारपूर्वक विशेषसंख्याको वताते हैं। सामण्णण य एवं णव जोणीओ हवंति वित्थारे । लक्खाण चदुरसीदी जोणीओ होति णियमण ॥ ८८ ॥ सामान्येन चैवं नव योनयो भवन्ति विस्तारे । लक्षाणां चतुरशीतिः योनयो भवन्ति नियमेन ॥ ८८ ॥ १ देवोंके उत्पन्न होने की शय्या और नारकियोंके उत्पन्न होनेके उष्ट्रकादि स्थानोंको उपपाद कहते हैं, उनमें उत्पन्न होनेको भी उपपाद कहते हैं । २ चारो तरफसे पुद्गलका इकट्ठा होना (जू मच्छर आदिके जन्मविशेष में रूढ है)।३माताके सचित्तरज और पिताके अचित्त वीर्य के मिलनेसे मिश्र योनि होती है। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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