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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। जीवसमासके और भी उत्तर भेदोंको गिनानेकेलिये दो गाथा कहते हैं । इगिवणं इगिविगले असण्णिसण्णिगयजलथलखगाणं । गब्भभवे सम्मुच्छे दुतिगं भोगथलखेचरे दो दो ॥ ७९ ॥ एकपञ्चाशत् एकविकले असंज्ञिसंज्ञिगतजलस्थलखगानाम् । गर्भभवे सम्मूळे द्वित्रिकं भोगस्थलखेचरे द्वौ द्वौ ॥ ७९ ॥ अर्थ-जीवसमासके उक्त ५७ भेदोंमेंसे पञ्चेन्द्रियके छह भेद निकालनेसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियसम्बन्धी ५१ भेद शेष रहते हैं । कर्मभूमिमें होनेवाले तिर्यञ्चोंके तीन भेद हैं, जलचर स्थलचर नभश्चर । ये तीनों ही तिर्यञ्च सज्ञी और असझी होते हैं । तथा गर्भज और सम्मूर्छन होते हैं; परन्तु गर्भजोंमें पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त ही होते हैं, इसलिये गर्भजके बारह भेद, और सम्मूर्छनोंमें पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त तीनोंही भेद होते हैं, इसलिये सम्मूर्छनोंके अठारह भेद, सब मिलाकर कर्मभूमिज तिर्यञ्चोंके तीसभेद होते हैं । भोगभूमिमें पंचेन्द्रियतिर्यञ्चोंके स्थलचर नभश्चर दो ही भेद होते हैं । और ये दोनोंही पर्याप्त तथा निर्वृत्यपर्याप्त होते हैं । इसलिये भोगभूमिज तिर्यञ्चोंके चार भेद, और उक्त कर्मभूमिज सम्बन्धी तीस भेद, उक्त ५१ भेदोंमें मिलानेसे तिर्यग्गति सम्बन्धी सम्पूर्ण जीवसमासके ८५ भेद होते हैं। भोगभूमिमें जलचर सम्मूर्छन तथा असंज्ञी जीव नहीं होते । मनुष्य देव नारकसम्बन्धी भेदोंको गिनाते हैं। अजवमलेच्छमणुए तिदु भोगकुभोगभूमिजे दो दो। सुरणिरये दो दो इदि जीवसमासा हु अडणउदी ॥८०॥ ___ आर्यम्लेच्छमनुष्ययोस्रयो द्वौ भोगकुभोगभूमिजयोह्रौं द्वौ । सुरनिरययोद्वौं द्वौ इति जीवसमासा हि अष्टानवतिः ॥ ८०॥ अर्थ-आर्यखण्डमें पर्याप्त निवृत्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त तीनोंही प्रकारके मनुष्य होते हैं। म्लेच्छखण्डमें लब्ध्यपर्याप्तकको छोड़कर दो प्रकारके ही मनुष्य होते हैं। इसीप्रकार भोगभूमि कुभोगभूमि देव नारकियोंमें भी दो दो ही भेद होते हैं । इसलिये सब मिलाकर जीवसमासके ९८ भेद हुए । भावार्थ-पूर्वोक्त तिर्यञ्चोंके ८५ भेद, और ९ भेद मनुष्यों के तथा दो भेद देवोंके, दो भेद नारकियोंके, इसप्रकार सब मिलाकर जीवसमासके अवान्तर भेद ९८ होते हैं। इसप्रकार स्थानाधिकारकी अपेक्षा जीवसमासोंका वर्णन किया। अब दूसरा योनि अधिकार क्रमसे प्राप्त है । उस योनिके दो भेद हैं, एक आकारयोनि दूसरी गुणयोनि । उसमें प्रथम आकारयोनिको कहते हैं । संखावत्तयजोणी कुम्मुण्णयवंसपत्तजोणी य । तत्थ य संखावत्ते णियमादु विवजदे गब्भो ॥ ८१॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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