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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । एकस्मिन् कालसमये संस्थानादिभिर्यथा निवर्तन्ते । न निवर्तन्ते तथापि च परिणामैमिथो यैः ॥ ५६ ॥ अर्थ-अन्तर्मुहूर्तमात्र अनिवृत्तिकरणके कालमेंसे आदि या मध्य या अन्तके एक समयवर्ती अनेक जीवोंमें जिस प्रकार शरीरकी अवगाहना आदि बाह्य कारणोंसे तथा ज्ञानावरणादिककर्मके क्षयोपशमादि अन्तरङ्ग कारणोंसे परस्परमें भेद पाया जाता है, उस प्रकार जिन परिणामोंके निमित्तसे परस्परमें भेद नहीं पाया जाताः होति अणियट्टिणो ते पडिसमयं जेस्सिमेकपरिणामा। विमलयरझाणहुयवहसिहाहि णिद्दड्ड कम्मवणा ॥५७॥ (जुम्मम्) भवन्ति अनिवर्तिनस्ते प्रतिसमयं येषामेकपरिणामाः । विमलतरध्यानहुतवहशिखाभिर्निर्दग्धकर्मवनाः ॥ ५७ ॥ (युग्मम् ) अर्थ—उनको अनिवृत्तिकरण परिणाम कहते हैं । और अनिवृत्तिकरणका जितना काल है उतनेही उसके परिणाम हैं । इसलिये उसके काल के प्रत्येक समयमें अनिवृत्तिकरणका एक २ ही परिणाम होता है । तथा ये परिणाम अत्यन्त निर्मल ध्यानरूप अग्निकी शिखाओंकी सहायतासे कर्मवनको भस्म करदेते हैं । भावार्थ-अनिवृत्तिकरणका जितना काल है उतनेही उसके परिणाम हैं, इसलिये प्रत्येक समयमें एक ही परिणाम होता है। अतएव यहांपर भिन्नसमयवर्ती परिणामोंमें सर्वथा विसदृशता और एकसमयवर्ती जीवोंके परिणामोंमें सर्वथा सदृशता ही होती है । इन परिणामोंसेही आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोंकी गुणश्रेणिनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्डन, अनुभागकाण्डकखण्डन होता है, और मोहनीय कर्मकी बादरकृष्टि सूक्ष्मकृष्टि आदि होती हैं । नवमें गुणस्थानके संख्यात भागोंमेंसे अन्तके भागमें होनेवाले कार्यको कहते हैं । पुवापुचप्फड्डयबादरसुहमगयकिट्टिअणुभागा। हीणकमाणंतगुणेणवरादु वरं च हेहस्स ॥ ५९ ॥ पूर्वापूर्वस्पर्धकबादरसूक्ष्मगतकृष्टयनुभागाः । हीनक्रमा अनन्तगुणेन अवरात्तु वरं चाधस्तनस्य ॥ ५९॥ अर्थ-पूर्वस्पर्धकसे अपूर्वस्पर्धकके और अपूर्वस्पर्धकसे बादरकृष्टिके तथा बादरकृष्टिसे सूक्ष्मकृष्टिके अनुभाग क्रमसे अनन्तगुणे २ हीन हैं । और ऊपरके (पूर्व २ के) जघन्यसे नीचेका (उत्तरोत्तरका ) उत्कृष्ट और अपने २ उत्कृष्टसे अपना २ जघन्य अनन्तगुणा २ हीन है। भावार्थः-अनेक प्रकारकी अनुभागशक्तिसे युक्त कार्मणवर्गणाओं के समूहको स्पर्धक कहते हैं। जो स्पर्धक अनिवृत्तिकरणके पूर्वमें पायेजांय उनको पूर्वस्पर्धक कहते हैं । जिनका अनिवृतिकरणके निमित्तसे अनुभाग क्षीण हो जाता है उनको अपूर्वस्पर्धक कहते हैं । तथा जिनका For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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