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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३ गोम्मटसारः। अपेक्षासे परिणामोंमें विसदृशता है । जो परिणाम किसी एक जीवके प्रथम समयमें हो सकता है वही परिणाम किसी दूसरे जीवके दूसरे समयमें, और तीसरे जीवके तीसरे समयमें, तथा चौथे जीवके चौथे समयमें हो सकता है, इसलिये भिन्नसमयवर्ती अनेक जीवों के परिणामोंसे सदृशता भी होती है । जैसे १६२ नम्बरका परिणाम प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्थ समयमें होसकता है । प्रथम समयसम्बन्धी परिणामपुंजके भी ३९,४०, ४१,४२ इसतरह चार खण्ड किये गये हैं। अर्थात् नम्बर १ से लेकर ३९ नम्बर तकके ३९ परिणाम ऐसे हैं जो प्रथम समयमें ही पाये जाते हैं, द्वितीयादिक समयोंमें नहीं, इनही ३९ परिणामोंके पुंजको प्रथम खण्ड कहते हैं। दूसरे खण्डमें नम्बर ४० से ७९ तक ४० परिणाम ऐसे हैं जो प्रथम और द्वितीय समयमें पाये जाते हैं इसको द्वितीय खण्ड कहते हैं । तीसरे खण्डमें नम्बर ८० से १२० तक ४१ परिणाम ऐसे हैं जो प्रथम द्वितीय तृतीय समयोंमें पाये जाते हैं । और चतुर्थ खण्डमें नम्बर १२१ से १६२ तक ४२ परिणाम ऐसे है जो आदिके चारोंही समयोंमें पाये जा सकते हैं । इसही प्रकार अन्य समयोंमेंभी समझना । अधःकरणके ऊपर २ के समस्त परिणाम पूर्वपूर्व परिणामकी अपेक्षा अनन्त २ गुणी विशुद्धता लिये हुए हैं। अब अपूर्वकरण गुणस्थानको कहते हैं। अंतोमुहुत्तकालं गमिऊण अधापवत्तकरणं तं । पडिसमयं सुझंतो अपुवकरणं समल्लियइ ॥ ५० ॥ अन्तर्मुहूर्तकालं गमयित्वा अधःप्रवृत्तकरणं तत् ।। प्रतिसमयं शुध्यन् अपूर्वकरणं समाश्रयति ॥ ५० ॥ अर्थ-जिसका अन्तर्मुहूर्तमात्र काल है ऐसे अधःप्रवृत्तकरणको विताकर वह सातिशय अप्रमत्त जब प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए अपूर्वकरण जातिके परिणामोंको करता है तब उसको अपूर्वकरणनामक अष्टमगुणस्थानवर्ती कहते हैं। अपूर्वकरणका निरुक्तिपूर्वक लक्षण कहते हैं । एदमि गुणहाणे विसरिससमयट्ठियहिं जीवहिं । पुवमपत्ता जमा होति अपुवा हु परिणामा ॥ ५१ ॥ एतस्मिन् गुणस्थाने विसदृशसमयस्थितै वैः । पूर्वमप्राप्ता यस्मात् भवन्ति अपूर्वा हि परिणामाः ॥ ५१ ॥ अर्थ-इस गुणस्थानमें भिन्नसमयवर्ती जीव, जो पूर्वसमयमें कभी भी प्राप्त नहीं हुए थे ऐसे अपूर्व परिणामोंको ही धारण करते हैं इसलिये इस गुणस्थानका नाम अपूर्वकरण है। भावार्थ जिस प्रकार अधःकरणमें भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश और विस For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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