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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसार। श्रद्धान न करके विपरीत श्रद्धान करता है उसको मिथ्यादृष्टि कहते हैं। यहांपर जो च शब्द डाला है उससे यह अभिप्राय समझना चाहिये कि यदि कोई जीव बाहिरसे सम्यग्दृष्टिके समान आचरण करै और अन्तरङ्गसे उसके विपरीत परिणाम हों तो वह यथार्थमें मिथ्यादृष्टि ही है। इस अर्थको दृढ़ करनेके लिये ही मिथ्यादृष्टिके बाह्य चिहोंको दिखाते हैं। मिच्छाइट्टी जीवो उबइठें पवयणं ण सद्दहदि । सदहदि असभा उबइठं वा अणुवइ8॥१८॥ मिथ्यादृष्टिर्जीव उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति । श्रद्दधाति असद्भावमुपदिष्टं वाऽनुपदिष्टम् ॥ १८ ॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीव समीचीन गुरुओंके पूर्वापर विरोधादि दोषोंसे रहित और हितके करनेवाले भी वचनका यथार्थ श्रद्धान नहीं करता। किन्तु आचार्याभासोंकेद्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भावका अर्थात् पदार्थके विपरीत स्वरूपका इच्छानुसार श्रद्धान करता है। __इस प्रकार प्रथम गुणस्थानका स्वरूप, उसके भेद, और उनके दृष्टान्त, तथा बाह्य चिह्नोंको दिखाकर अब दूसरे सासादन गुणस्थानको कहते हैं । आदिमसम्मत्तद्धा समयादो छावलित्ति वा सेसे । अणअण्णदरुदयादो णासियसम्मोत्ति सासणक्खो सो ॥ १९ ॥ आदिमसम्यक्त्वाद्धा आसमयतः षडावलिरिति वा शेषे । अनान्यतरोदयात् नाशितसम्यक्त्व इति सासनाख्यः सः ॥ १९ ॥ अर्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अथवा यहांपर वा शब्दका ग्रहण किया है इसलिये द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्तमात्र कालमेंसे जब जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण काल शेष रहे उतने कालमें अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभमें से किसीके भी उदयसे सम्यक्त्वकी विराधना होनेपर सम्यग्दर्शनगुणकी जो अव्यक्त अतत्वश्रद्धानरूप परिणति होती है उसको सासन या सासादन गुणस्थान कहते हैं । अब इस गुणस्थानको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं। सम्मत्तरयणपचयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो । णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयवो ॥ २० ॥ सम्यक्त्वरत्नपर्वतशिखरात् मिथ्यात्वभूमिसमभिमुखः । नाशितसम्यक्त्वः सः सासननामा मन्तव्यः ॥ २० ॥ अर्थ-सम्यक्तरूपी रत्नपर्वतके शिखरसे गिरकर जो जीव मिथ्यात्वरूप भूमिके सम्मुख गो. २ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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