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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २६३ गुणस्थानोंमें मार्गणाओंको बताकर अब उपयोगको बताते हैं । दोण्हं पंच य छच्चेव दोसु मिस्सम्मि होति वामिस्सा। सत्त्वजोगा सत्तसु दो चेव जिणे य सिद्धे य ॥ ७०४॥ द्वयोः पञ्च च छट् चैव द्वयोर्मिश्रे भवन्ति व्यामिश्राः । सप्तोपयोगाः सप्तसु द्वौ चैव जिने च सिद्धे च ॥ ७०४ ॥ अर्थ-दो गुणस्थानों में पांच, और दोमें छह, मिश्रमें मिश्ररूप छह, सात गुणस्थानोंमें सात, जिन और सिद्धोंके दो उपयोग होते हैं । भावार्थ-उपयोगके मूलमें दो भेद हैं, एक ज्ञान दूसरा दर्शन । ज्ञातके आठ भेद हैं इनके नाम पहले वता चुके हैं । दर्शनके चार भेद हैं इनके भी नम पहले गिना चुके हैं । इसतरह उपयोगके बारह भेद हैं। इनमेंसे मिथ्यात्व और सासादनमें आदिके तीन ज्ञान और आदिके दो दर्शन ये पांच उपयोग होते हैं । असंयत और देशसंयतमें मति श्रुत अवधि तथा चक्षु अचक्षु अवधिदर्शन ये छह उपयोग होते हैं। मिश्र गुणस्थानमें ये ही छह उपयोग मिश्ररूप होते हैं । प्रमत्तादि क्षीणकषायपर्यन्त सात गुणस्थानों में मनःपर्ययसहित सात उपयोग होते हैं । सयोगी अयोगी तथा सिद्धोंके केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो ही उपयोग होते हैं। इसप्रकार गुणस्थानोंमें वीसप्ररूपणानिरूपणनामा इक्कीसमा अधिकार समाप्त हुआ । इष्टदेवको नमस्कार करते हुए आलापाधिकारको कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं । गोयमथेरं पणमिय ओघादेसेसु वीसभेदाणं । जोजणिकाणालावं वोच्छामि जहाकम सुणह ॥ ७०५ ॥ गौतमस्थविरं प्रणम्य ओघादेशयोः विंशभेदानाम् । योजनिकानामालापं वक्ष्यामि यथाक्रमं शृणुत ।। ७०५ ॥ अर्थ-सिद्धोंको वा वर्धमान-तीर्थकरको यद्वा गौतमगणधरस्वामीको अथवा साधुसमूहको नमस्कार करके गुणस्थान और मार्गणाओंके योजनिकारूप वीस भेदोंके आलापको क्रमसे कहता हूं सो सुनो। ओघे चोदसठाणे सिद्धे वीसदिविहाणमालावा । वेदकषायविभिण्णे अणियट्टीपंचभागे य ॥ ७०६॥ __ ओघे चतुर्दशस्थाने सिद्धे विंशतिविधानामालापाः। वेदकषायविभिन्ने अनिवृत्तिपञ्चभागे च ॥ ७०६ ॥ अर्थ-चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणास्थानों में उक्त वीस प्ररूपणाओंके सामान्य पर्याप्त अपर्याप्त ये तीन आलाप होते हैं । वेद और कषायकी अपेक्षासे अनिवृत्तिकरणके पांच भागोंमें पांच आलाप भिन्न २ समझने चाहिये । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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