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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। पञ्चमादिगुणस्थानों में जो २ भाव होते हैं उनको दो गाथाओंद्वारा अब दिखाते हैं । देसविरदे पमत्ते इदरे य खओबसमियभावो दु। सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरि ॥१३॥ देशविरते प्रमत्ते इतरे च क्षायोपशमिकभावस्तु ।। स खलु चारित्रमोहं प्रतीत्य भणितस्तथा उपरि ॥ १३ ॥ अर्थ-देशविरत प्रमत्त अप्रमत्त इन गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयकी अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव होते हैं तथा इनके आगे अपूर्वकरणादि गुणस्थानोंमें भी चारित्रमोहनीयकी अपेक्षासे ही भावोंको कहेंगे। तत्तो उवरि उवसमभावो उवसामगेसु खबगेसु । खइओ भावो णियमा अजोगिचरिमोत्ति सिद्धे य ॥ १४ ॥ _तत उपरि उपशमभावः उपशामकेषु क्षपकेषु । क्षायिको भावो नियमात् अयोगिचरिम इति सिद्धे च ॥ १४ ॥ अर्थ-सातवें गुणस्थानके ऊपर उपशमश्रेणिवाले आठमें नौमें दशमें गुणस्थानमें तथा ग्यारहमेमें औपशमिकभाव ही होते हैं, इसीप्रकार क्षपकश्रेणिवाले उक्त तीन गुणस्थान तथा क्षीणमोह, संयोगकेवली अयोगकेवली गुणस्थानोंमें और सिद्धों के नियमसे क्षायिक भाव ही होते हैं। क्योंकि उपशम श्रेणीवाला तीनों गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय कर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम करता है और ग्यारहमेमें सम्पूर्ण चारित्रमोहनीयका उपशम करचुकता है इसलिये यहांपर औपश मिक भाव ही होते हैं । इसीतरह क्षपकश्रेणिवाला इक्कीस प्रकृतियोंका क्षय करता है और क्षीणमोह, सयोगी, अयोगी और सिद्ध यहांपर क्षय होचुका है इसलिये क्षायिक भाव ही होते हैं। इसप्रकार संक्षेपसे सम्पूर्ण गुणस्थानों में होनेवाले भाव और उनके निमित्तको दिखाकर गुणस्थानोंका लक्षण अब क्रमप्राप्त है, इसलिये पहले प्रथमगुणस्थानका लक्षण और उसके भेदोंको कहते हैं। मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्चअत्थाणं । एयंतं विबरीयं विणयं संसयिदमण्णाणं ॥१५॥ मिथ्यात्वोदयेन मिथ्यात्वमश्रद्धानं तु तत्वार्थानाम् । एकान्तं विपरीतं विनयं संशयितमज्ञानम् ॥ १५॥ अर्थ-मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयसे तत्वार्थके विपरीत श्रद्धानको मिथ्यात्व कहते हैं । इसके पांच भेद हैं एकान्त विपरीत विनय संशयित अज्ञान । अनेक धर्मात्मक पदार्थको किसी एक धर्मात्मक मानना इसको एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं जैसे वस्तु सर्वथा क्षणिकही है, अथवा नित्य ही है, वक्तव्य ही है, अवक्तव्य ही है इत्यादि । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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